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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल समह, पाचवा भाग ३७६ mrrrrrr own www xn . . . . . xxn ~~rnar का भागी भी नहीं हो सकता। अनाबाध मोक्ष मुख की इच्छा करने वाले भव्य पुरुष का फर्तव्य है कि वह सदा अपने धर्माचार्य को प्रसन्न रखने के लिये प्रयत्नशील रहे। __ (११) जिस प्रकार अग्निहोत्री ब्राह्मण मन्त्रपूर्वक मधु घी आदि की विविध भारतियों से अग्नि का अभिषेक और पूजा करता है उसी प्रकार अनन्तज्ञान सम्पन्न हो जाने पर भी शिष्य को प्राचार्य की नम्रभाव से उपासना करनी चाहिए। __ (१२) शिष्य का कर्तव्य है कि जिस गुरु के पास आत्मा का विकास करने वाले धर्मशास्त्र की शिक्षा ले, उसकी पूर्ण रूप से विनय भक्ति करे । हाथ जोड़ कर उसे सिर से नमस्कार करे और मन, वचन, काया से गुरु का सदा उचित सत्कार करे। (१३) लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य कल्याण चाहने वाले साधु की मात्मा को शुद्ध करने वाले हैं। इस लिए शिष्य सदा यह भावना करे फि जो गुरु मुझे सदा हित शिक्षा देते हैं, मुझे उनका आदर सत्कार करना चाहिए। (१४) जिस प्रकार रात्रि के अन्त में देदीप्यमान सूर्य सारे भरतखंड को प्रकाशित करता है उसी प्रकार आचार्य अपने श्रुत अर्थात् ज्ञान, शील अर्थात् चारित्र और बुद्धि से जीवाजीवादि पदार्थों के स्वरूप को प्रकाशित करता है। जिस प्रकार देवों के बीच बैठा हुआ इन्द्र शोभा देता है उसी प्रकार साधनों की सभा के बीच बैठा हुआ भाचार्य शोभा देता है। (१५) जैसे बादल रहित निर्मल श्राफाश में शुभ्र चाँदनी भौर तारामण्डल से घिरा हुआ चॉद शोभा देता है उसी प्रकार भिक्षों के बीच गणी अर्थात् आचार्य मुशोभित होता है। (१६) भाचार्य तीनों योगों की समाधि अर्थात् निश्चलता, श्रुमशान, शील और बुद्धि से युक्त सम्यग्दर्शन आदि गुणों के
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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