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________________ श्री मेठिया जैन मन्यमाला आकर (खान) होते हैं। मोक्षाभिलाषी को चाहिए कि वह आचार्य की निरन्तर आराधना करे। सदा उनकी सेवा में रहे और उन्हें प्रसन्न रक्खे। (१७) बुद्धिमान् साधु को चाहिए कि वह शिक्षाप्रद उपदेशों को सुन कर अप्रमत्तभाव से भाचार्य की सेवा करे। इस प्रकार सेवा करने से सद्गुणों की प्राप्ति होती है और जीव अन्त में सिद्धि को प्राप्त करता है। (दशवेकालिक अध्ययन ६ उद्देशा " ८७८- भगवान महावीर की तपश्चर्या विषयक १७ गाथाएं आचारांग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कन्ध, नवम अध्ययन के चौथे उद्देशे में भगवान महावीर की तपश्चर्या का वर्णन है। उसमें सतरह गाथाएं हैं। उनका भावार्थ क्रमशः नीचे लिखे अनुसार है। भगवान् सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं- हे भायुष्मन् जम्बू ! भगवान् महावीर के पास से उनकी तपस्या का वर्णन मैंने जैसा सुना है वैसा तुम्हें कहता हूँ (१) किसी प्रकार का रोग न होने पर भी भगवान् ऊनोदरी अर्थात् परिमित आहार करते थे । रोग उत्पन्न होने पर उसके लिए औषधोपचार करना नहीं चाहते थे। ___ (२) सारे शरीर को अशुचि रूप समझ कर बेजुलाब, वमन, तैलाभ्यंग (मालिश), स्नान, सम्बाधन (पगचॉपी) और दातुन भी नहीं करते थे। (३-४) इन्द्रियों के विपयों से विरक्त होकर वे सदा अल्पभापी रोते हुए विचरते थे ।शीत काल में भगवान् छाया में बैठ करध्यान किया करते थे और ग्रीष्म ऋतु में धूप में बैठ कर भातापनालेते थे। nirm i r - -- --- ---- -- ---- -- --
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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