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________________ १७८ भी सेठिया जैन मन्यमाला ~rnmamimar अधिक हानि पहुँचा देता है। इसी प्रकार अल्पवयस्क भाचार्य की हीलना करने वाला मन्द बुद्धि शिष्य जातिपथ अर्थात् जन्म मरणरूप संसार को बढ़ाता है। (५) दृष्टिविष सर्प भी बहुत क्रुद्ध होने पर प्राणनाश से अधिक कुछ नहीं कर सकता फिन्तु आशातना के कारण आचार्य के अप्रसन्न हो जाने पर प्रबोधि अथात् सम्यग्ज्ञान का अभाव हो जाता है। फिर मोक्ष नहीं होता अर्थात् प्राचार्य की भाशातना करने वाला रूमी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। (६) जो अभिमानी शिष्य आचार्य की आशातना करता है वह जलती हुई भाग पर पैर रख कर जाना चाहता है, आशीविष अर्थात् भयङ्कर सॉप को क्रोधित करता है अथवा जीने की इच्छा से जहर खाता है। (७) यह सम्भव है कि पैर रखने पर आग न जलाए, क्रोधित सर्पल दो अथवा खाया हुआ विप अपना असर न दिखाए अर्थात् खाने वाले को न मारे फिन्तु गुरु की निन्दा यामपमान से कभी मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। (E) जोअभिमानी शिष्य गुरुजनों की आशातना करता है वह कठोर पर्वत को मस्तक की टक्कर से फोड़ना चाहता है। सोए हुए सिंह कोलात मार कर जगाता है तथा शक्ति (खांडा) की तेज धार पर अपने हाथ पैरों को पटक कर स्वयं घायल होता है। (8) यह सम्भव है कि कोई सिर की टक्कर से पर्वत को तोड़ दे. क्रोधित सिंह से भी बच जावे । खांडे पर पटके हुए हाथ पैर भी न फटें फिन्तु गुरु की हीलना करने वाला शिष्य कभी मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता। (१०) पाशातना द्वारा प्राचार्य को अप्रसन्न करने वाला व्यक्ति कभी वोषि को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए वह मोक्ष मुख
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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