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________________ श्री जैन सिदान्त बोल संमह. पांचवां भाग ३१७ होता है। कामान्ध व्यक्ति उचित अनुचित का कुछ भी विचार नहीं करते। रानी ने दासी को ऐसा डॉटा कि वह कॉपने लगी।हाण जोड़ कर उसने अपने अपराध के लिये क्षमा माँगी। अपनी युक्ति को असफल होते देख कर मन्त्री बहुत निराश हुभा । अब उसने रानी को बलपूर्वक माप्त करने का निश्चय किया। इसके लिये वह कोई अवसर देखने लगा। एक दिन किसी अन्य राजा से मिलने के लिये राजा चण्डप्रद्योतन अपनी राजधानी से बाहरगया। अपने साथ चलने के लिए राजा ने भूदेव मन्त्री को भी कहा किन्तु बीमारी का बहाना करके वह वहींरह गया। रानी शिवा देवी को माप्त करने का उसे यह अवसर उचित प्रतीत हुआ। घर से रवाना होकर वह राजमहल में पहुंचा और निःसंकोच भाव से वह अन्तःपुर में चला गया। रानी शिवा देवी के पास जाकर उसने अपनी दुष्ट भावना उसके सामने प्रकट की। उसने रानी को अनेक प्रलोभन दिये और जन्म भर उसका दास बने रहने की प्रतिज्ञा की। __ रानी को अपना शील धर्म प्राणों से भी ज्यादा प्यारा था। वह पतिव्रत धर्म में दृढ़ थी । उसने निर्भर्त्सना पूर्वक मन्त्री को अन्तःपुर से निकलवा दिया। घर थाने पर मन्त्री को अपने दुष्कृत्य पर बहुत पश्चात्ताप होने लगा। वह सोचने लगाकि जब राजाको मेरे कार्य का पता लगेगा तो मेरी फैसी दुर्दशा होगी। इसी चिन्ता में वह बीमार पड़ गया। बाहर से लौटते ही राजा ने मन्त्री को बलाया।वह डर के मारे कांपने लगा। बीमारी की अधिकता बताफर उसने राजा के सामने उपस्थित होने में असमर्थता प्रकट की। राजा को मन्त्री के विना चैन नहीं पड़ता । वह सन्ध्या के समय शिवा देवी को साथ लेकर मन्त्री के घर पहुँच गया। अब तो मन्त्री का डर और भी बढ़ गया।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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