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________________ मी जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग २५६ हो चुका जिस दिन मैंने अपने हृदय में नेमिकुमार को पति मान लिया। उस दिन से मैं उनकी हो चुकी। उनके सिवाय सभी पुरुष मेरे लिए पिता और भाई के समान हैं। कुमार स्वयं भी मुझे अपनी पनी वनाना स्वीकार करके ही यहाँ आए थे। मुझे इस बात का गौरव है कि उन्होंने मुझे अपनी पत्नी बनाने के योग्य समझा। संसार की सारी स्त्रियों को छोड़ कर मुझे ही यह सन्मान दिया। __यह भी मेरे लिए हर्प की बात है कि वे संसार के प्राणियों को अभय दान देने के लिए ही वापिस गए हैं। अगर वे मुझे छोड़ कर किसी दूसरी कन्या से विवाह करने जाते तो मेरे लिए यह भपमान की बात होती किन्तु उन्होंने अपने उस महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिए विवाह बन्धन में पड़ना उचित नहीं समझा। यह तो मेरे लिए अभिमान की बात है कि मेरे पति संसार का कल्याण करने के लिए जा रहे हैं। दुःख केवल इतना ही है कि वे मुझे विना दर्शन दिए चले गए। अगर विवाह हो जाने के बाद वे मुझे भी अपने साथ ले चलते और मुक्ति के मार्ग में अग्रसर होते हुए मुझे भी अपने साथ रखते तो कितना अच्छा होताक्या मैं उनके पथ में बाधा डालती ? किन्तु नेमिकुमार एक बार मुझे अपना चुके हैं। अपने चरणों में शरण दे चुके हैं। महापुरुष जिसे एक बार शरण दे देते हैं फिर उसे नहीं छोड़ते । नेमिकुमार भी मुझे कभी नहीं छोड़ सकते।संसार के प्राणियों को दुःख से छुड़ाने के लिए उन्होंने सभी भौतिक सुखों को छोड़ा है । ऐसी दशा में वे मुझे दुःख में कैसे छोड़ सकते हैं ? मेरा अवश्य उद्धार करेंगे। राजीमती में स्त्रीहृदय की कोमलता,महासती की पवित्रता और महापुरुषों सी वीरता का अपूर्व सम्मिश्रण था। उसकी विचार धारा कोमलता के साथ उठ कर दृढ़ता के रूप में परिणत हो गई। उसे पका विश्वास हो गया कि नेमिकुमार अवश्य आएंगे और
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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