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________________ २५८ भी मेठिया चैन प्रथमाला भगवान् के जाते ही बरातियों की सारी उमंगें हवा हो गई। सभी के चेहरे पर उदासी छा गई। चाँद के छिप जाने पर जोदशा रात्रि की होती है वही दशा नेमिनाथ के चले जाने पर बरात की हुई । महाराज उग्रसेन की दशा और भी विचित्र हो रही थी। उन्हें कुछ नहीं सूझ रहा था कि इस समय क्या करना चाहिए। ___ उस समय राजीमती के हृदय की दशा अवर्णनीय थी। नेमिकुमार के हाथी को अपने महल की भोर आते देख कर उसने सोचा था- मैं कितनी भाग्यशालिनी हूँ ! त्रिलोकपूज्य भगवान् स्वयं मुझे वरने के लिए आरहे हैं। मैं यादवों की कुलवधृवनेगी। महाराजा समुद्रविजय और महारानी शिवादेवी मेरे श्वसुर और सास होंगे। मुझ से बढ़ कर सुखी संसार में कौन है ? राजीमती अपने भावी सुखों की कल्पनाओं से मन ही मन खुश होरही थी, इतने में उसने नेमिकुमार को वापिस लौटते देखा । वह इस आघात को न सह सकी और मूच्छित होकर गिर पड़ी। चेतना आते ही सारा दुःख वाहर उमड़ आया। वह अपना सर्वस्व नेमिकुमार के चरणों में अर्पित कर चुकी थी, उन्हें अपना आराध्य देव मान चुकी थी । जीवन नैया की पतवार उनके हाथों में सौंप चुकी थी। उनके विमुख होने पर वह अपने को सूनी सी, निराधारसी, नाविक रहित नौकासी मानने लगी। जिस प्रकार सूर्य और दिन का सतत सम्बन्ध है, राजीमती उसी प्रकार नेमिकुमार और अपने सम्बन्ध को मान चुकी थी। सूर्य के विना दिन के समान नेमिकुमार के बिना वह अपना कोई अस्तित्व ही न समझती थी। सखियाँ कहने लगीं-अभी कौनसा विवाह हो गया है? उन से भी अच्छा कोई दसरा वर मिल जाएगा। राजीमती ने उत्तर दिया- विवाह क्या होता है ? क्या अग्नि प्रदक्षिणा देने से ही विवाह होता है ? मेरा विवाह तो उसी दिन
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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