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________________ २२४ . श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला - ran , warrrrr . anhvr दिलाता हूँ कि मेरे यहाँ तुम्हारे सत्य और शील के पालन में किसी प्रकार की बाधा न होगी। वसुमती धनावह सेठ के साथ जाने को तैयार हो गई और रथी से कहने लगी-पिताजी! आप मेरे साथ चलिए और बीस लाख मोहरें लाकर माताजी को दे दीजिए। रथी के हृदय में अपार दुःख हो रहा था। उसके पैरआगे नहीं बढ़ रहे थे। धीरे धीरे सभी धनावह सेठ के घर आए। धनावह ने तिजोरी से बीस लाख मोहरें निकाल कर रथी के सामने रख दी और कहा- भाप इन्हें ले लीजिए। . . __ रथी ने कहा- सेठ साहेव ! अपनी इस पुत्रीको अलग करने की मेरी इच्छा नहीं है किन्तु मेरे घर के कलुषित वातावरण में यह नहीं रहना चाहती। अगर इसकी इच्छा है तो आपके घररहेकिन्तु इसे वेचकर मैं पाप काभागी नहीं बनना चाहता। धनावह सेठ मोहरें देना चाहता था किन्तु रथी उन्हें लेना नहीं चाहताथा। ___ यह देखकर वसुमती रथी से कहने लगी- सेठजी और आप दोनों मेरे पिता हैं। मैं दोनों की कन्या हूँ। इस नाते आपदोनों भाई भाई हैं। भाइयों में खरीदने और बेचने का प्रश्न ही नहीं होता। वीस लाख मोहरें आप अपने भाई की तरफ से माताजी को भेट दे दीजिए। यह कह कर उसने धनावह सेठ के नौकरों द्वारा मोहरें रथी के घर पहुँचवा दी। रथी और धनावह सेठ का सम्बन्ध सदा के लिए दृढ़ हो गया। धनावह सेठ की पत्नी का नाम मृला था। उसका स्वभाव सेठ के सर्वथा विपरीत था। सेठ जितना नम्र,सरल, धार्मिक और दयाल था, मृला उतनी ही कठोर, कपटी और निर्दय थी। सेठ दया, दान आदिधार्मिक कार्यों को पसन्द करताथा किन्तु मूला को इन सब बातों से घृणा थी।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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