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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग २२३ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwmmmmwwwin wwmmmm नहीं हो सकती। आपके साथ किए गए दुर्व्यवहार के लिए मुझे पश्चात्ताप हो रहा है। आपकी आत्मामहान् है। आशा है,अज्ञानतावश किए गए उस अपराध के लिए श्रापमुझक्षमा कर देंगी। ___ अब मैंने अपने पाप के पेशे को छोड़ देने का निश्चय कर लिया है। आपने मेरे जीवन की धारा को बदल दिया। यह मेरे गौरव की बात होती यदि आपके चरणों से मेरा घर पवित्र होता। किन्तु उस गन्दे, नारकीय वातावरण में आप सरीखी पवित्र भात्मा को ले जाना मैं उचित नहीं समझती। यह कह कर अपने अपराध के लिए बारबार क्षमा मांगती हुई वेश्या अपने घर चली गई। वसुमती तथा वेश्या की बात विजली के समान सारे शहर में फैल गई। नगरी में धनावह नाम का एक धर्मात्मा सेठ रहता था। उसके कोई सन्तान न थी। वसमती की प्रशंसा सुन कर उसकी इच्छा हुई कि ऐसी धर्मात्मा सती मेरे घर रहे तो कितना अच्छा हो। उसके रहने से मेरे घर का वातावरण पवित्र हो जायगा और मैं निर्विघ्न धर्माचरण कर सकूँगा। ___ उत्तरोत्तर घटनाओं को देख कर रथी का वमुमती की ओर अधिकाधिक झुकाव हो रहाथा। ऐसी महासती को बेचना उसे बहुत बुरा लग रहा था। वह बार बार वसुमती से वापिस लौटने की प्रार्थना करने लगा और वसुमती उसे सान्त्वना देने लगी। _इतने में धनावह सेठ वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने रथीको मोहरें देना स्वीकार कर लिया और वसुमती को अपने घर ले जाने के लिए कहा। वसुमती ने पूछा-पिताजी! आपके घर का क्या आचार है? ___ सेठ ने उत्तर दिया-पुत्री यथाशक्ति धर्मकी आराधना करना ही मेरे घर काआचार है। मैं बारह व्रतधारी श्रावक हूँ। घर पर श्राए हुए अतिथिको विमुख न जाने देना मेरा नियम है।धार्मिक कार्यों में मेरी सहायता करना तुम्हारा कार्य होगा। मैं तुम्हें विश्वास
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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