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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग २२५ वसुमती को अपने साथ लेकर सेठ ने मूला से कहा- हमारे सौभाग्य से यह गुणवती कन्या प्राप्त हुई है। इसे अपनी पुत्री समझना। इसके रहने से हमारे घर में धर्म, प्रेम और सुख की वृद्धि होगी। मूला ऊपर से तो सेठ की बातें सुन रही थी किन्तु हृदय में दूसरी ही वातें सोच रही थी। सेठजी इस सुन्दरी को क्यों लाए हैं ? साथ में इसकी प्रशंसा भी क्यों कर रहे हैं ? ऊपर से तो पुत्री कह रहे हैं किन्तु हृदय में कुछ और बात है। भला इसके सौन्दर्य को देख कर किसका चित्त विचलित न होगा। .. हृदय के भावों को मन ही में दवा कर मूला ने सेठ की बात ऊपर से स्वीकार कर ली। वसुमती सेठ के घर रहने लगी। उसके कार्य, व्यवहार तथा चारित्र से घर के सभी लोग प्रसन्न रहने लगे। सभी उसकी प्रशंसा करने लगे। सेठजी स्वयं भी उसके कार्यों को सराहा करते थे किन्तु मूला पर इन सब का उल्टा असर पड़ रहा था। एक दिन सेठ ने वसुमती से पूछा- बेटी ! तेरा नाम क्या है? पिताजी ! मैं भापकी पुत्री हूँ। पुत्री का नाम वही होता है जो माता पिता रक्खें । वसुमती ने उत्तर दिया। बेटी ! मैंने तेरी सारी बातें सुन ली हैं। जैसे चन्दन काटने वाले को भी सुगन्ध और शान्ति देता है इसी प्रकार तुम अपकारी पर भी पकार करने वाली हो, इसलिए मैं तुम्हारा नाम चन्दनवाला रखताहूँ। सेठ ने पुराने नाम की छानबीन करना उचित न समझा। सभी लोग वसुमती को चन्दनवाला कहने लगे। एक दिन चन्दनवाला स्नान के बाद अपने बाल सुखा रही थी। इतने में सेठजी बाहर से आए और अपने पैर धोने के लिए पानी मांगा । चन्दनवाला गरम पानी, बैठने के लिए चौकी तथा पैर घोने का बर्तन ले आई और बोली- पिताजी!श्राप यहाँ विराजें। मैं आपके पैर धो देती हूँ।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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