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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, पांचवा भाग www.w مع प्रकृतियाँ मनुष्य भव में ही काम आती हैं, इस लिए चार कषाय और मनुष्यगति आदि छः मिला कर १० प्रकृतियों कम करने से पाँचवें गुणस्थान में ६७ प्रकृतियों का बन्ध होता है । (६) छठे गुणस्थान में ६३ प्रकृतियों का बन्ध होता है । प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय पाँचवें गुणस्थान के अन्त तक ही रहता है । छठे गुणस्थान में इसका उदय नहीं होता और इसी लिए बन्ध भी नहीं होता । पाँचवें गुणस्थान की ६७ प्रकृतियों में से प्रत्याख्यानावरण की चार कम कर देने पर शेष ६३ प्रकृतियाँ छठे गुणस्थान में बन्धयोग्य रहती हैं । (७) सातवें गुणस्थान में ५८ या ५६ प्रकृतियों का बन्ध होता है । इस गुणस्थान को प्राप्त करने वाले जीव दो प्रकार के होते हैं। एक तो वे जो छठे गणस्थान में देवायु के बन्ध का प्रारम्भ करके उसे उस गुणस्थान में बिना समाप्त किए ही सातवें गुणस्थान को प्राप्त कर लेते हैं और फिर सातवें गुणस्थान में ही देवायु के बन्ध को समाप्त करते हैं । दूसरे वे जो देवायु के बन्ध का प्रारम्भ और समाप्ति दोनों छठे गुणस्थान में कर लेते हैं और फिर सातवें गुणस्थान में आते हैं। पहले प्रकार के जीवों को छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में रति, शोक, अस्थिर नामकर्म, अशुभ नामकर्म, अयश: कीर्ति नामकर्म और असातावेदनीय इन छः कर्म प्रकृतियों का बन्धविच्छेद हो जाता है । इस लिए छठे गुणस्थान की त्रेसठ प्रकृतियों में से छः घटा देने पर ५७ प्रकृतियाँ बचती हैं । दूसरे प्रकार के जीवों के छठे गुणस्थान के अन्त में उपरोक्त छः तथा देवायु इन सात कर्म प्रकृतियों का बन्धविच्छेद होता है । इस तरह सात कम करने पर ५६ प्रकृतियॉ शेष बचती हैं। दोनों प्रकार के जीव आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग इन दोनों प्रकृतियों को बाँध सकते हैं । इन दो के मिलाने पर ५६ या ५८ प्रकृतियाँ
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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