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________________ ९२ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला जो होती हैं। जी जीव देवायुवन्ध को सातवें गुणस्थान में पूरा करते हैं उनके लिए ५६ तथा जो छठे में पूरा कर लेते हैं उनके लिए ५८ प्रकृतियों बन्धयोग्य होती हैं। ( ८ ) आठवें गुणस्थान के पहले भाग में ५८ प्रकृतियों का बन्ध होता है । जिस जीव के देवायुका बन्ध छठे गुणस्थान में पूरा नहीं होता उसके सातवें गुणस्थान में वह पूरा हो जाता है। इस लिए आठवें गुरणस्थान के पहले भाग में शेष ५८ प्रकृतियों का ही वन्ध होता है। दूसरे से लेकर छठे तक पाँच भागों में ५६ प्रकृतियों का बन्ध होता है । निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों का बन्धविच्छेद पहले भाग में ही हो जाता है, इस लिए दूसरे भाग में ये दो प्रकृतियाँ कम हो जाती हैं। सातवें भाग में २६ प्रकृतियों का बन्ध होता है। क्योंकि नीचे लिखी तीस प्रकृतियाँ आठवें गुणस्थान के छठे भाग से आगे नहीं बँधनीं - (१) देवगति (२) देवानुपूर्वी (३) पञ्चेन्द्रियजाति (४) शुभ विहायोगति (५-१३) त्रसनवक (त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, मुखर और आदेय) (१४-१७) चौदारिक के सिवाय चार शरीर (१८-१६) वैक्रिय और आहारक अङ्गोपाङ्ग (२०) समचतुरस्र संस्थान (२१) निर्माण नामकर्म (२२) तीर्थङ्कर नामकर्म (२३) वर्ण (२४) गन्ध (२५) रस (२६) स्पर्श (२७) अगुरुलघु नामकर्म (२८) उपघात नामकर्म (२६) पराघात नामकर्म (३०) उच्छ्वास नामकर्म । इन प्रकृतियों के कम होने से आठवें गुणस्थान के सातवें भाग में केवल २६ कर्मप्रकृतियों का वन्ध होता है। (६) नवे गुणस्थान के पहले भाग में २२ प्रकृतियों का बन्ध होता है। उपरोक्त २६ प्रकृतियों में से हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार प्रकृतियों का वन्धविच्छेद आठवें गुणस्थान के सातवें भाग में हो जाता है, इस लिए नवें गुणस्थान के पहले भाग में केवल २२ प्रकृतियों का बन्ध होता है। नर्वे गुणस्थान के दूसरे
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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