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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला अतः उपरोक्त पच्चीसप्रकृतियाँ दूसरे गुणस्थान के चरम समय तक हीबँध सकती हैं,तीसरे आदि गुणस्थानों में नहीं। तीसरे गुणस्थान में जीव का स्वभाव ऐसा होता है जिससे उस समय आयु का वन्ध नहीं होने पाता। इसी लिए मनुष्यायु तथा देवायु का बन्ध भी तीसरे गुणस्थान में नहीं होता। नरकायु तथा तिर्यञ्चायु तो१६और २५ प्रकृतियों में आ गई हैं । इस प्रकार कुल ११७ प्रकृतियों में से १६+२५+२=४३ कम करने से तीसरे गुणस्थान में केवल ७४ प्रकृतियों का बन्ध होता है। (४) चौथे गुणस्थान में ७७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। उपरोक्त ७४ तथा तीर्थङ्कर नामकर्म, मनुष्यायु और देवायु । (५) देशविरत नामक पाँचवें गुणस्थान में ६७ कर्म प्रकृतियों का बन्ध होता है। उपरोक्त ७७ में से वज्रऋषभनाराच संहनन, मनुष्यत्रिक (मनुष्यगति,मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु), अप्रत्याख्यानावरण चार कपाय तथा औदारिक शरीर और औदारिक अङ्गोपाङ्ग नामकम,ये १० प्रकृतियाँ कम हो जाती हैं। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध,मान, माया और लोभ का उदय चौथे गुणस्थान के अन्त तक ही रहता है । पाँचवें से लेकर आगे के गुणस्थानों में अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय नहीं रहता । कपायवन्ध के लिए यह नियम है कि जिस कपाय का जिन गणस्थानों में उदय रहता है उन्हीं में उसका वन्ध होता है। इस लिए पाँचवें गणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कपाय का बन्ध नहीं होता। पाँचवें गणस्थान में मनुष्य भव के योग्य कर्मप्रकृतियों का भी:-' नहीं होता सिर्फ देव भव के योग्य कर्म प्रकृतियों का ही वन्ध' । है। इस लिए मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, वज नाराच संहनन, औदारिक शरीर और औदारिक अंग छः प्रकृतियों का बन्ध भी इस गुणस्थान में नहीं होता
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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