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________________ 438 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला पृथक पृथक है।यद्यपि काच ने स्याही को चारों तरफ से घेर रक्खा है, फिर भी दोनों अपनी अपनी जगह पर हैं। स्याही के प्रदेश(अवयव) ही उसका क्षेत्र हैं। जीव और आकाश एक ही जगह रहते हैं परन्तु दोनों का क्षेत्र एक नहीं है। जीव के प्रदेश जीव का क्षेत्र हैं और आकाश के अवयव आकाश का क्षेत्र हैं। ये दोनों द्रव्य भी क्षेत्र की अपेक्षा से पृथक् पृथक् हैं / व्यवहार चलाने के लिये या साधारण बुद्धि के लोगों को समझाने के लिए आधार को भी क्षेत्र कहते हैं। वस्तु के परिणमन को काल कहते हैं / जिस द्रव्य का जो परिणमन है, वही उसका काल है। प्रातः सन्ध्या आदि काल भी वस्तुओं के परिणमन रूप हैं। एक साथ अनेक वस्तुओं के परिणमन हो सकते हैं, परन्तु उनका काल एक नहीं हो सकता, क्योंकि उनके परिणमन भिन्न भिन्न हैं। घड़ी घंटा मिनट आदि में भी काल का व्यवहार होता है। लेकिन यह स्वकाल नहीं है। व्यवहार चलाने के लिए घंटा आदि की कल्पना की गई है। वस्तु के गुण-शक्ति- परिणाम को भाव कहते हैं / प्रत्येक वस्तु का स्वभाव जुदा जुदा होता है / दूसरी वस्तु के स्वभाव से उसमें सदृशता हो सकती है परन्तु एकता नहीं हो सकती, क्योंकि एक द्रव्य का गुण दूसरे द्रव्य में नहीं पाया जाता। इस प्रकार खचतुष्टय की अपेक्षा वस्तु अस्तिरूप है और परचतुष्टय की अपेक्षा नास्तिरूप है / द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का कथन सरलता से द्रव्य में अस्तित्व,नास्तित्व समझाने के लिए है / संक्षेप से यह कहना चाहिए कि स्व-रूप से वस्तु है और पर-रूप से नहीं है / स्वरूप को स्वात्मा और पर-रूप को परात्मा शब्द से भी कहते हैं। जब हमें वस्तु के स्व-रूप की अपेक्षा होती है, तब हम उसे
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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