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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह अस्ति कहते हैं और जब पर-रूप की अपेक्षा होती है तब नास्ति कहते हैं। इसी प्रकार जब हमें स्व-रूप और पर-रूप दोनों की अपेक्षा होती है, तब अस्ति नास्ति कहते हैं। यह तीसरा भङ्ग हुआ। किन्तु हम अस्तित्व और नास्तित्व को एक ही समय में नहीं कह सकते / जब अस्तित्व कहते हैं, तब नास्तित्व भङ्ग रह जाता है। जब नास्तित्व कहते हैं, तब अस्तित्व रह जाता है / इसलिये जब हम क्रम से अस्ति नास्ति कहना चाहते हैं, तब अस्ति नास्ति नाम का तीसरा भङ्ग बनता है किन्तु जब एक ही समय में अस्ति और नास्ति कहना चाहते हैं, तब प्रवक्तव्य (न कहने योग्य ) नाम का चौथा भंग बनता है। इस तरह क्रमशःस्वरूप की अपेक्षा 'अस्ति नास्ति' और युगपत् स्वरूप की अपेक्षा ' अवक्तव्य' भङ्ग होता है। ___ जब हमारे कहने का आशय यह होता है कि वस्तु स्वरूप की अपेक्षा अस्ति होने पर भी अवक्तव्य है, पर स्वरूप की अपेक्षा नास्ति होने पर भी अवक्तव्य है और क्रमशः स्वरूप पररूप की अपेक्षा अस्ति नास्ति होने पर भी अवक्तव्य है,तब तीन भङ्ग और बन जाते हैं / अस्ति- अवक्तव्य, नास्ति- अवक्तव्य, अस्ति- नास्ति-अवक्तव्य / मूल भङ्ग जो अस्ति और नास्ति रक्खे गए हैं, उनमें से एक को ही मानना ठीक नहीं है। यदि केवल अस्ति भङ्ग ही मानें तो जिस प्रकार वस्तु एक जगह 'अस्ति रूप' होगी, उसी प्रकार सब जगह होगी, क्योंकि नास्ति भङ्ग तो है ही नहीं / ऐसी हालत में हरएक चीज सब जगह पाई जाने से व्यापक कहलाएगी।बालु के एक कण को भी व्यापक मानना पड़ेगा। - यदि केवल नास्ति भङ्ग ही माना जावे, तो प्रत्येक वस्तु सब जगह नास्ति रूप कहलावेगी। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु का
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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