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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 437 विरोध तभी कहा जा सकता जब कि एक ही काल में एक ही जगह दोनों धर्म एकत्रित होकर न रहें, लेकिन स्वचतुष्टय ( स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ) की अपेक्षा अस्तित्व और परचतुष्टय (परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव ) की अपेक्षा नास्तित्व तो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से एक ही वस्तु में सिद्ध है, फिर विरोध कैसा ? किन दो धर्मों में विरोध है यह बात हम पहले नहीं जान सकते / जब हमें यह बात मालुम हो जाती है कि ये धर्म एक ही समय में एक ही जगह नहीं रह सकते, तब हम उनमें विरोध मानते हैं / यदि वे एकत्रित होकर रह सकें, तो विरोध कैसे कहा जा सकता है ? स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्ति और स्वचतुष्टय की अपेक्षा ही यदि नास्ति कहा जावे, तो विरोध कहना ठीक है / लेकिन अपेक्षाभेद से दोनों में विरोध नहीं कहा जा सकता : स्वपरचतुष्टय- हमने कहा है कि स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्तिरूप और परचतुष्टय की अपेक्षा नास्तिरूप है। यह चतुष्टय है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव / गुण और पर्याय के आधार समूह को द्रव्य कहते हैं, जैसे ज्ञानादि अनेक गुणों का आश्रय जीव द्रव्य है / 'जीव' जीवद्रव्य के रूप से ' है ' (अस्ति)। जड़ द्रव्य के रूप से नहीं है' (नास्ति) / इसी प्रकार घड़ा घड़ेरूप से है , कपड़े के रूप से नहीं है। हरएक वस्तु स्वद्रव्य रूप से है और पर-द्रव्य रूप से नहीं है। ___ द्रव्य के प्रदेशों को (परमाणु के बराबर उसके अंशों को) क्षेत्र कहते हैं / घड़े के अवयव घड़े का क्षेत्र हैं। यद्यपि व्यवहार में आधार की जगह को क्षेत्र कहते हैं, किन्तु यह वास्तविक क्षेत्र नहीं है / जैसे दवात में स्याही है। यहाँ पर व्यवहार से स्याही का क्षेत्र दवात कहा जाता है लकिन स्याही और दवात का क्षेत्र
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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