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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 403 उद्यान में ठहरा हुआ था / उसकी बहिन उत्तरा दर्शन करने आई / अपने भाई को नग्न देखकर उसने भी कपड़े छोड़ दिये। जब वह नगर में भिक्षा के लिये गई तो एक वेश्या ने देख लिया। उसके बीभत्स रूप को देखकर जनता स्त्रियों से घृणा न करने लग जाय, इस डर से वेश्या ने उसकी बिना इच्छा के भी कपड़े पहिना दिये / यह सारी बात उत्तरा ने शिवभूति से कही। बिना वस्त्र की स्त्री बहुत बीभत्स और लज्जनीय हो जाती है, यह सोचकर उसने कहा- तुम इसी तरह रहो। कपड़े मत छोड़ो। ये तुम्हें देवता ने दिए हैं। शिवभूति के कौण्डिन्य और कोडवीर नाम के दो शिष्य हुए।कौण्डिन्य और कोडवीर के बाद शिष्यपरम्परा चलने से वोटिकदृष्टि' प्रचलित हो गई। शिवभूति और उस के गुरु में जोशंका समाधान हुआ, विशेपावश्यकभाष्य के अनुसार उसे यहाँ स्पष्ट रूप से दिया जाता है। शिवभूति- साधु को परिग्रह नहीं रखना चाहिए, क्योंकि वह कषाय, भय और मूळ आदि का कारण है। शास्त्र में कहा गया है, अचेलपरिषह को जीतने वाला ही साधु होता है / यह परिषह कपड़ा छोड़ने वाले को ही हो सकता है। आगम में तीन ही कारणों से वस्त्र पहिनने की अनुमति दी गई है- लज्जा या संयम की रक्षा के लिए, जुगुप्सा--जनता में होने वाली निन्दा से बचने के लिये और सरदी गरमी तथा मच्छर आदि के परिषह से बचने के लिये / इन युक्तियों से सिद्ध होता है कि साधु को अचेल अर्थात् बिना वस्त्र के ही रहना चाहिए। आचार्य आर्यकृष्ण- जो कषाय का कारण है वह परिग्रह है और परिग्रह मोक्षार्थी को छोड़ ही देना चाहिए। अगर यह तुम्हारा एकान्त नियम है तो शरीर भी छोड़ देना चाहिए, क्योंकि वह भी कषाय की उत्पत्ति का कारण है। .
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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