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________________ 402 श्रीसेठिया जैन ग्रन्थमाला इस प्रकार जिनकल्पी का वर्णन सुनकर शिवभूति ने कहा, आज कल औधिक (वस्त्र पात्रादि नित्य काम में आने वाली)और औपग्रहिक (आपत्ति आने पर संयम की रक्षा के लिए काम में लाई जाने वाली)रूप इतनी उपधि क्यों ग्रहण की जाती है ?वही जिनकल्प क्यों नहीं अङ्गीकार किया जाता?गुरु ने कहा-उस तरह की शारीरिक शक्ति और संहनन न होने से आज कल उसका पालन कोई नहीं कर सकता। दूसरी बातों की तरह इसका भी जम्बूस्वामी के बाद विच्छेद हो गया। शिवभूति ने कहा- मेरे रहते उसका विच्छेद कैसे हो सकता है ? मैं उसका पालन करूँगा / परलोकार्थी को निष्परिग्रह होकर जिनकल्प का ही अवलम्बन करना चाहिए / कषाय, भय, मूर्छा आदि दोष पैदा करने वाले इस अनर्थकारीपरिग्रह से क्या प्रयोजन ? इसीलिए शास्त्र में साधु को निष्परिग्रह कहा है। जिनेन्द्र भगवान् भी वस्त्र धारण नहीं करते थे / इस लिए बिना वस्त्र रहना ही ठीक है। ___ गुरु ने कहा- यदि यह बात है तो बहुत से व्यक्तियों को देह के विषय में भी कपाय, भय, मूर्खादि दोष होते हैं। इसलिए व्रत लेते ही उसे भी छोड़ देना चाहिए। शास्त्र में जो निष्परिग्रहत्व कहा है उसका अर्थ है धर्मोपकरण में भी मूळ का न होना / मूर्खा का न होना ही निष्परिग्रहत्व है। धर्मोपकरणों का सर्वथा त्याग निष्परिग्रहत्व नहीं है। जिनेन्द्र भी सर्वथा वस्त्र रहित नहीं होते थे / शास्त्र में लिखा है- 'चौबीसों जिनेन्द्र एक वस्त्र के साथ निकले थे।' . इस प्रकार गुरु और दूसरे स्थविरों द्वारा समझाया जाने पर भी कषाय और मोहनीय के उदय से उसने अपना आग्रह न छोड़ा / कपड़े छोड़कर चला गया। एक दिन वह बाहर के
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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