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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला तीन रत्नियाँ (हाथ) और छ: अङ्गुल होती है अर्थात् उत्सेधाङ्गुल उनकी गाना वा इकत्तीस हाथ होती है। इससे आगे के नरकों में दुगुनी दुगुनी अवगाहना है अर्थात् शर्कराप्रभा में पन्द्रह धनुष दो हाथ बारह अङ्गुल उत्कृष्ट अवगाहना होती है । तीसरी वालुकाप्रभा में इकत्तीस धनुष एक हाथ । चौथी पङ्कप्रभा में बास धनुष दो हाथ । पाँचवीं धूमप्रभा में एक सौ पच्चीस धनुष । छठी तमःप्रभा में ढाई सौ धनुष । सातवीं तमस्तमः प्रभा में पाँच सौ धनुष । जिस नारकी में जितनी भवधारणीया अवगाहना है, उस से दुगुनी उत्तरविक्रिया की उत्कृष्ट अवगाहना है अर्थात् पहली नारकी में पन्द्रह धनुष ढाई हाथ। दूसरी में इकत्तीस धनुष एक हाथ । तीसरी में बासठ धनुष दो हाथ। चौथी में सवा सौ धनुष । पाँचवीं में ढाई सौ धनुष । छठी में पाँच सौ धनुष । सातवीं में 1 ३२० एक हजार धनुष । सभी नरकों में भवधारणीया जघन्य अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग होती है। वह उत्पत्ति समय होती है, दूसरे समय नहीं । उत्तरविक्रिया में जघन्य अवगाहना अंगुल के संख्याnai भाग होती है। वह भी प्रारम्भ काल में ही रहती है। कहीं कहीं पर अंगुल का असंख्यातवाँ भाग कहा जाता है। किन्तु शास्त्रों में संख्यातवाँ भाग ही है। प्रज्ञापना और अनुयोगद्वार में संख्यातवाँ भाग ही बताया गया है। अन्तरकाल - तिर्यञ्च और मनुष्य गति के जीव नरक गति में सदा उत्पन्न होते रहते हैं। अगर कभी व्यवधान (अन्तर ) होता है तो सारी नरक गति को लेकर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त का होता है अर्थात् उत्कृष्ट से उत्कृष्ट इतनी देर तक कोई भी जीव दूसरी गति से नरक में उत्पन्न नहीं
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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