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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह होता । प्रत्येक पृथ्वी की विवक्षा से रत्नप्रभा में उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त का विरह पड़ता है। शर्कराप्रभा में सात अहोरात्र । वालुकाप्रभा में पन्द्रह अहोरात्र । पङ्कप्रभा में एक महीना । धूमप्रभा में दो मास । तमःप्रभा में चार मास। तमस्तमःप्रभा में छः मास। जघन्य से जघन्य विरह रत्नप्रभादि सभी नरकों में एक समय है। उद्वर्तना अर्थात् नारकी जीवों के नरक से निकलने का भी उतना ही अन्तर काल है जितना उत्पाद विरह काल । ___एक समय में कितने जीव उत्पन्न होते हैं और कितने निकलते हैं ? यह संख्या नारकी जीवों की देवों की तरह है अर्थात् एक समय में जघन्य एक अथवा दो, उत्कृष्ट संख्यात अथवा असंख्यात जीव उत्पन्न होते हैं और मरते हैं। लेश्या- सामान्य रूप से नारकी जीवों में पहिले की तीन अर्थात् कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं होती हैं । रत्नप्रभा में कापोत लेश्या ही होती है । शर्करापभा में तीव्र कापोत लेश्या होती है । वालुकाप्रभा में कापोतनील लेश्या होती है। ऊपर के नरकावासों में कापोत तथा नीचे के नरकावासों में नील लेश्या होती है । पङ्कप्रभा में सिर्फ नील लेश्या होती है। धूमप्रभा में नील और कृष्ण लेश्याएं होती हैं। ऊपर के नरकावासों में नील तथा नीचे कृष्ण । तमःमभा में कृष्ण लेश्या ही होती है । तमस्तमःप्रभा में बहुत तीव्र कृष्ण लेश्या होती है। इन में उत्तरोत्तर नीचे अधिकाधिक क्लिष्ट परिणाम वाली लेश्याएं होती हैं। कुछ लोगों का मत है कि नारकों की ये लेश्याएं बाह्य वर्ण रूप द्रव्य लेश्याएं समझनी चाहिएं। अन्यथा शास्त्र में जो सातवीं नरक के जीवों के सम्यक्त्व बताया गया है, वह असंगत हो जायगा क्योंकि आवश्यक सूत्र में ऊपर की तीन अर्थात् तेज,
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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