SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह प्रकृति भीशीतप्रधान होती है। थोड़ी सी गर्मी भी उनको बहुत दुःख देती है। उत्पत्तिस्थानों के अत्यन्त शीत और वहाँ की सारी भूमि जलते हुए खैर के अङ्गारों से भी अधिक तप्त होने के कारण वे भयङ्कर उष्णवेदना का अनुभव करते हैं । इसी तरह दूसरे नरकों में अपने २ स्वभाव के विपरीत वेदना होती है । __ पङ्कप्रभा में ऊपर के अधिक नरकावासों में उष्ण वेदना होती है । नीचे वाले नरकावासों में शीत वेदना होती है । धूमप्रभा के अधिक नरकावासों में शीत और थोड़ों में उष्णवेदना होती है। छठी और सातवीं नरक में शीतवेदना ही होती है। यह वेदना नीचे नीचेनरकों में अनन्तगुणी तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम होती है । ग्रीष्म ऋतु में मध्याह्न के समय जब आकाश में कोई बादल न हो, वायु बिल्कुल बन्द हो, सूर्य प्रचण्ड रूप से तपा रहा हो उस समय पित्त प्रक्रति वाला व्यक्ति जैसी उष्ण वेदना का अनुभव करता है, उष्णवेदना वाले नरकों में उससे भी अनन्तगुणी वेदना होती है। यदि उन जीवों को नरक से निकाल कर प्रबल रूप से जलते हुए खैर के अङ्गारों में डाल दिया जाय तो वे अमृत रस से स्नान किए हुए व्यक्ति की तरह अत्यन्त सुख अनुभव करेंगे। इस सुख से उन्हें नींद भी आजायगी। पौष या माघ की मध्य रात्रि में प्रकाश के मेघ शून्य होने पर जिस समय शरीर को कँपाने वाली शीत वायु चल रही हो हिमालय गिरि के बर्फीले शिखर पर बैठा हुआ आग, मकान और वस्त्रादि शीत निवारण के सभी साधनों से हीन व्यक्ति जैसी शीतवेदना का अनुभव करता है उससे अनन्तगुणी वेदना शीतप्रधान नरकों में होती है। यदि उन जीवों को नरक से निकाल कर उक्त पुरुष के स्थान पर खड़ा कर दिया जाय तो उन्हें परम सुख प्राप्त हो और नींद भी आजाय ।
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy