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________________ ३१६ भी सेठिया जैन प्रन्थमाला अन्धकार की अधिकता हो। . पहली नारकी में तीस लाख नरकावास हैं। दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पाँचवीं में तीन लाख, छठी में पाँच कम एक लाख और सातवीं में पाँच । सातवीं के पाँच नरकावासों के नाम इस प्रकार हैं-पूर्व दिशा में काल, पश्चिम में महाकाल, दक्षिण में रोरुक, उत्तर में महारोरुक. और बीच में अप्रतिष्ठानक । कुल मिलाकर चौरासी लाख नरकावास हैं। __ अत्यन्त उष्ण या अत्यन्त शीत होने के कारण क्षेत्रजन्य वेदना सातों नरकों में होती है । पाँचवीं नरक तक आपस में एक दूसरे के प्रहार से वेदना होती है अर्थात् वैक्रिय शरीर होने से नारकी के जीव तरह तरह के भयङ्कर रूप बना कर एक दूसरे को त्रास देते हैं । गदा मुद्गर वगैरह शस्त्र बनाकर एक दूसरे पर आक्रमण करते हैं । बिच्छू या साँप बन कर काटते हैं । कीड़े बनकर सारे शरीर में घुस जाते हैं। इस तरह के रूप नारकी जीव संख्यात ही कर सकता है, असंख्यात नहीं। एक शरीर से सम्बद्ध (जुडे हुए) ही कर सकता है असम्बद्ध नहीं। एक सरीखे ही कर सकता है भिन्न भिन्न प्रकार के नहीं । धूमप्रभा पृथ्वी तक नारकी जीव इस तरह एक दूसरे के द्वारा दुःख का अनुभव करते हैं । छठी और सातवीं नरक के जीव भी तरह तरह के कीड़े बन कर एक दूसरे को कष्ट पहुँचाते हैं। पहिली तीन नरकों में परमाधार्मिक देवताओं के कारण भी वेदना होती है। क्षेत्रखभाव से रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और वालुकाप्रभा में उष्ण वेदना होती है। इन तीनों नरकों में उत्पत्तिस्थान बरफ की तरह शीतल होते हैं। इसलिए वहाँ पैदा हुए जीवों की
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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