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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। किसी किसी जगह ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इन चारों को मोक्ष का मार्ग बताया गया है । तप वास्तव में चारित्र का ही भेद है, इसलिए इन वाक्यों में परस्पर भेद न समझना चाहिए। ___ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । वस्तु के यथार्थ स्वरूप पर श्रद्धान अर्थात् विश्वास रखना या वास्तविक स्वरूप को जानने का प्रयत्न करना सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन होने से जीव आत्मा को शरीर से अलग समझने लगता है । सांसारिक भोगों को दुःखमय और निवृत्ति को सुखमय मानता है। सम्यग्दर्शन से जीव में ये गुण प्रकट होते हैप्रशम, संवेग, निर्वेद अनुकम्पा और आस्तिक्य । इन गुणों से सम्यग्दर्शन वाला जीव पहिचाना जा सकता है। आवश्यकसूत्र में सम्यक्त्व का स्वरूप नीचे लिखे अनुसार बताया गया है। जिन्होंने राग, द्वेष, मद, मोह आदि आदि आत्मा के शत्रों को जीत लिया है तथा आत्मा के मल गुणों का घात करने वाले चार घाती कर्मों को नष्ट कर दिया है ऐसे वीतराग को अपना देव अर्थात् पूज्य परमात्मा समझना । पाँच महाव्रत पालने वाले सच्चे सधुओं को अपना गुरु समझना और गग द्वेष से रहित सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए पदार्थों को सत्य समझना । परमार्थ वस्तुओं को जानने की रुचि रखना । जिन्होंने परमार्थ को जान लिया है ऐसे उत्तम पुरुषों की सेवा तथा सत्संग करना और अपने मत का मिथ्या आग्रह करने वाले कुदर्शनी का त्याग करना । सम्यग्दर्शन सम्पन्न व्यक्ति के लिए ऊपर लिखी बातें आवश्यक हैं । दृढ विश्वास या श्रद्धा सफलता की कुञ्जी है। आधिभौतिक
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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