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________________ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला ६५-योग की व्याख्या और भेदः वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम या क्षय होने पर मन, वचन, काया के निमित्त से आत्मप्रदेशों के चंचल होने को योग कहते हैं। अथवाःवीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से उत्पन्न शक्ति विशेष से होने वाले साभिप्राय आत्मा के पराक्रम को योग कहते हैं। (ठाणांग ३ सूत्र १२४ टीका) योग के तीन भेदः-- (१) मनोयोग (२) वचनयोग (३) काययोग । मनोयोगः-नोइन्द्रिय मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम स्वरूप आन्तरिक मनोलब्धि होने पर मनोवर्गणा के आलम्बन से मन के परिणाम की ओर झुके हुए आत्मप्रदेशों का जो व्यापार होता है उसे मनोयोग कहते हैं। वचनयोगः–मति ज्ञानावरण, अक्षर श्रुत ज्ञानावरण आदि कर्म के क्षयोपशम से आन्तरिक वागलब्धि उत्पन्न होने पर वचन वर्गणा के आलम्बन से भाषापरिणाम की ओर अभिमुख आत्मप्रदेशों का जो व्यापार होता है । उसे वचनयोग कहते हैं। काययोगः-औदारिक आदि शरीर वर्गणा के पुद्गलों के आलम्बन से होने वाले आत्मप्रदेशों के व्यापार को काययोग कहते हैं। (ठाणांग ३ सूत्र १२४) (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय, ५)
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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