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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ६७ पाट, पाटला ) इन तीनों वस्तुओं के शोधने में, ग्रहण करने में, अथवा उपभोग करने में संयम धर्म पूर्वक संभाल रखना, इसे एषणासमिति कहते हैं । एषणासमिति के तीन भेद: (१) गवेषणैषणा (२) ग्रहणैषणा (३) ग्रासैषणा | गवेषणैषणाः - सोलह उद्गम दोप, सोलह उत्पादना दोष, इन बत्तीस दोषों को टालकर शुद्ध आहार पानी की खोज करना गवेषणा है। ग्रहणैषणाः - एषणा के शंकित आदि दस दोषों को टाल कर शुद्ध अनादि ग्रहण करना ग्रहणैषणा है । ग्रासैषणा :- गवेषणा और ग्रहणैषणा द्वारा प्राप्त शुद्ध आहारादि को खाते समय मांडले के पांच दोष टालकर उपभोग करना ग्रासैषणा है। ( उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २४ ) ६४-करण के तीन भेद: (१) आरम्भ ( २ ) संरम्भ (३) समारम्भ | ( ठायांग ३ सूत्र १२४ ) आरम्भ:- पृथ्वी काय आदि जीवों की हिंसा करना आरम्भ कहलाता है । संरम्भ:- पृथ्वी काय आदि जीवों की हिंसा विषयक मन में संक्लिष्ट परिणामों का लाना संरम्भ कहलाता है । समारम्भ: - पृथ्वी काय आदि जीवों को सन्ताप देना समारम्भ कहलाता है । ( ठाणांग ३ उद्देशा १ सूत्र १२४ )
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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