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________________ (१७२ ) श्री जैन नाटकीय रामायण - - - - तुम्हारे देश को भी उजाड़कर फेंक देंगे। जनक-कदापि नहीं, चाहें सारा देश क्यों न उजड़ जाय किंतु मैं तुम लोगों म्लेशोंके साथ, जिनमें जीव दयाका नाम मात्र भी नहीं है । रोटी बेटी व्यवहार कदापि नहीं कर सकता । मैं क्षत्री हूं । क्षत्री लोग धर्म की रक्षा के लिये हैं न कि धर्म को दूसरों के हाथ सौंपने के लिये | जब तक एक बच्चा भी क्षत्री जाति का बचा रहेगा वह तुम्हारे हाथों से धर्म को बचायेगा । , म्लेश सर्दार-यदि तुम राजी नहीं होते हो तो युद्ध के लिये तैयार हो जाओ। जनक-मैं सदैव युद्ध के लिये तैयार हूं। क्षत्री लोग युद्ध से नहीं डरते। मिटते हैं धर्म पर जो, क्षत्री फहाते जग में । रहता है जोश हरदम, नत्री की हर एक रग में ।। निज देश धर्म जाती, अबलाओं को बचाकर । मरते हैं वीर रण में, शत्रू के वाण खाकर ।। (पर्दा खुलता है। दोनों ओर की सेना खड़ो हुई है युद्ध के बाजे बजते हैं। दोनों ओर से युद्ध प्रारम्भ होता है। राजा जनक घाबल होकर गिरता है, शत्र उसके ऊपर झपटते हैं। इतने में राम . लक्ष्मण आते हैं।) २
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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