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________________ तृतिय भाग । (१७१ ) · दशरथ-तुम बच्चे हो, युद्ध में जाने योग्य नहीं हो । तुम यहीं पर सुख से तीनों भाइयों सहित राज्य कार्य सम्हालो ! रामचन्द्र-पिताजी ! भाप यह न समझे कि बच्चा होने के कारण मैं युद्ध नहीं कर सकता । अग्नि की चिनगारी कितनी जरासी होती है किन्तु वही सारे बनको भस्म कर देती है, क्या उगता हुश्रा सूर्य अपार अंधकार को नष्ट नहीं कर देता? आप मुझे श्राज्ञा दीजिये, मैं भाई लक्षमण सहित युद्ध में जाकर उन म्लेक्षों से प्रजा की रक्षा करुंगा। लक्ष्मण-पिताजी आप हमें प्राज्ञा देने में कुछ भी संकोच न कीजिये । रण क्षेत्र में जाते ही हम लोग उन्हें मार कर भगा देंगे। दशरथ-यदि तुम दोनों भाइयों की इच्छा हैतो जाओ रण । क्षेत्र में जाकर राजा जनक की सहायता करो। ( दोनों पुत्र दूत सहित पिता को नमस्कार कर चले जाते हैं) (पर्दा गिरता है।) अंक प्रथम-दृश्य सप्तम (राजा जनक और म्लेक्ष सार आता है) म्लेक्ष-या तो तुम हमारे साथ रोटी बेटी व्यवहार करो हमारे वणे में आकर मिलो । वरना हम लोग दूसरे देशों की तरह
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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