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________________ ( १२६ ) श्री जैन नाटकीय रामायण | गिरा दूं पर्वतों को मैं, सुखा सागर दूं बाणों से || पता तुमको नहीं कैलाश को मैंने उठाया था । वरुण पता है बालि मुनि ने एक गुंठे से दबाया था ॥ करी तारीफ उसकी लाज तक तुमको न आई है । न कर अभिमान उस पर शक्ती जो देवों से पाई है ॥ रावण - यदि बाली मुनि ने दवादिया तो क्या हुआ । जो विजयी इन्द्रियों के कौन उनसे जीत सकता है | जिन्हें है आत्मबल उनसे न कोई जीत सकता है । यदि तुम देवीशक्ती का ताना देते हो तो मैं तुमसे युद्ध करने में देवी शक्ती का प्रयोग नहीं करूंगा। इन भुजाओं के बल से ही तुझे जीतूंगा तभी मेरा नाम रावण है । - वरुण – मैं तेरी गीदड़ धमकी में आने वाला नही हूं । यदि कुछ बल रखता है तो मेरे सामने भाकर दिखा । वीरों की तरह युद्ध में लड़ कर अपना कौशल दिखा । रावण - अधिक बढ़ कर न बोल । सुझे अपने सौ पुत्रों का घमंड है। मेरे अधीनस्थ सव राजाओं को इकट्टा हो जाने दे । सब भा चुके हैं केवल राजा प्रहलाद अभी तक नहीं भाये हैं पवन -- ( भाकर) राजा प्रहलाद का पुत्र मैं पवनकुमार उपस्थित हूं । मेरे लिये आज्ञा कीजिये कि इसका अभिमान चूर्ण करूं । बीर लोग अपनी भलाई अपने मुख से नहीं करते उनकी
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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