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________________ - जैन-गौरव-स्मृतियां * S S स्थान दि गृहस्थों को उन्होंने संघ में स्थान नहीं दिया जैनसंघा में गृहस्थ ? और साधु का सम्पर्क नियमित बना.रहे इसका ध्यान रक्खा गया जिससे साधु वर्ग में उतनी शिथिलता नहीं आसकी। बौद्धधर्म में यह व्यवस्था न होने से उसके साधु वर्ग में शिथिलता आगई। इसके कारण उसे अति क्षति उठानी पडी।''... . ..... ..... .. ...: इतनी समानता और असमानता होने पर भी दोनों धर्म लम्बे समय .." तक साथा विकसित हुए हैं। इसीलिए एक दूसरे का प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता है। एक दूसरे के प्रभाव से. उनमें कुछ नवीन तत्त्व आजाते हैं। जैसा कि जेकीवी ने लिखा है कि विचारों पर विशेष असर करने वाले, बाह्य जगत् के प्रभाव को बौद्धा आस्रव कहते हैं। यह भाव. जैनधर्म से लिया . . गया है। क्योंकि जीव पर कर्मपुदगल असर करते हैं, यह मान्यता केवल जैनधर्म की ही है ।" इसी तरह हरिभद्र सूरिने तीर्थङ्कर को बोधिसत्व कहा है। यह भाव बौद्धों से लिया गया है। इसी तरह एक धर्मः का दूसरे धर्म पर असर होता ही है। जैनधर्म और बौद्धधर्म के “साम्य एवं वैषम्य का यह दिग्दर्शन मात्र है। अब आगे जैनधर्म. और वैदिकधर्म के विषय में विचार जैनधर्म और वैदिकधर्म . भारत भूमि में अज्ञातकाल से जैनधर्म और वैदिकधर्म साथ साथ चलते आये हैं । उपलब्ध प्राचीनतम साहित्य और अन्यान्य पुरातत्त्व के साधनों से यह ज्ञात हो जाता है ये दोनों धर्म अत्यन्त प्राचीन काल से चले आरहे है । प्राचीनतम वेदों में जैनधर्म और उसके तीर्थकारों का स्पष्ट वर्णन पाया जाता है। प्रथम तीर्थङ्कर - ऋषभदेव के समय का पता लगाना असंभवसा है । वे इतने प्राचीन काल में हुए हैं कि उसका अन्दाजा लगाना भी दुष्कर है। जैनधर्म विषयक अज्ञान के कारण कई प्राच्य और. प्रतीच्य विद्वानों ने जैनधर्स को वेदधर्म की शाखा मानने की भूल की है परन्तु अर्वाचीन अन्वेषकों के द्वारा यह प्रमाणित हो गया है कि जैनधर्म किसी भी धर्म की शाखा नहीं परन्तु स्वतंत्र मौलिक एवं प्राचीन धर्म है। जैसे २ जैनधर्म के सन्बन्ध में प्राश्चात्य विद्वान अध्ययन और अन्वेपण करते जा:रहे हैं
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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