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________________ । * जैन-गौरव-स्मृतियां ट " दोनों धर्मों के ग्रन्थ अलग २ हैं, इतिहास अलग २ है, कथाएँ भिन्न भिन्न हैं और सिद्धान्तों में भी महत्त्वपूर्ण भिन्नता है। जैनधर्म द्रव्यापेक्षया शाश्वत, अभौतिक जीव का अस्तित्व मानता है और यह स्वीकार करता है कि जबतक यह जीवात्मा पुद्गल के बन्धन में होता है तबतक वह संसार में परिभ्रमण करता है। बौद्धधर्म में ऐसा शाश्वत आत्मा ही नहीं माना गया है। उनका मानना है कि 'अहं' कोई जीव है ही नहीं। जिसे आत्मा, अहं या जीव रूप कहा जाता है वह कोई 'शाश्वत पदार्थ नहीं है परन्तु क्षणिक धर्मों की सन्तान है । यह एक क्षण में उत्पन्न होने वाली और दूसरे क्षण में नष्ट होने वाली विविध पदार्थों की श्रृंखला है । आत्मद्रव्य की नास्तिकता का यह सिद्धान्त बौद्धधर्म का महत्त्व पूर्ण सिद्धान्त है। जैनधर्म और बौद्धधर्म के सिद्धान्त में यह मुख्य भेद है। इसी तरह ज्ञान, नीति, कर्म और निर्वाण के सम्बन्धं में भी बहुत भेद है। . अहिंसा और कर्म के सिद्धान्तों में उपरी साम्य होने पर भी गहराई .. से विचारने.पर गहरा भेद प्रतीत होता है। जैनधर्म में मांसाहार का सर्वथा । निषेध किया गया है और किसी भी अवस्था में मांसभक्षण की छूट नहीं दी '. ई गहै । जब कि बौद्धधर्म में अपने निमित्त न मारे गये जीवका मांसाहार ., करने की परिपाटी देखी जाती है। अहिंसा और हिंसा की परिभाषाओं में 'भी अन्तर है । कर्म के सिद्धान्त के विषय में बौद्ध मानते हैं कि प्रत्येक प्राणी अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल पाता है। जब तक रूप, वेदना, संस्कार और विज्ञान की संतान चलती रहेगी. तबतक अनेक जन्मों में प्राणी को भ्रमण करना पड़ेगा। जव जब आस्रव क्षीण होंगे तव कर्मों का क्षय होगा और निर्वाण होगा"। इस विवेचन से यह स्पष्ट नहीं कि बुद्ध भी. महा वीर के अनुरूप कर्म को एक विशेष सूक्ष्म पुदगलों की आत्मा पर प्रक्रिया रूप : मानते थे जो आस्रव, बंध और निर्जरा की अवस्थाओं से युक्त है । वौद्ध साहित्य में आस्रव और संवर शब्दों का प्रयोग हुआ है परन्तु बंध और निर्जरा का - प्रयोग कहीं नहीं हुआ। .. संघ व्यवस्था में भी दोनों धर्मों में महत्व का भेद रहा है। महावीर ने साधु, साध्वी और श्रावक श्राविका रूप चतुविध संघ की स्थापना की थी । जवकि बुद्ध ने प्रथम, तो भिक्षुओं को और बाद में भिक्षुणियों को भी संघ में . A
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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