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________________ >*<>*<>*जैन - गौरव स्मृतियाँ जैनकला की लाक्षणिकताः -- कला का उद्द ेश्य 'सत्यं शिवं सुन्दरं' की धाराधना विश्व में जो सत्य है, कल्याणमय है और सुन्दर है उसे रूप में प्रदर्शित करना ही सच्ची कला है । कला के मूल सन्निहित होते हैं | ये जितने अधिक सत्य, कल्याणकर कला उतनी ही अधिक स्वाभाविक और उच्च होती हैं । में I करना होता है। सुबोध और सुगम्य भावना और आदर्श और सुन्दर होते हैं कला के इस आदर्श उद्देश्य का पालन जैनकला में मुख्यरूप से पाया जाता है जैनकला का आदर्श सांसारिक भोग विलास न होकर परमार्थ की रसमय अभिव्यक्ति करना है । वस्तुतः विश्व में यही सत्य, कल्याणमय और सुन्दर है । ईश्वर, प्रकृति और मनुष्य के समागम से और तत्सम्बन्धी चिन्तन से मनुष्य पर इन तीनों में रहे हुए सौन्दर्य की छाप पड़ती है । इस सौन्दर्य की छाप को इन्द्रियगोचर करने के लिए जो २ किया जाता है वह सब कला है । इस प्रकार के आध्यात्मिक सौन्दर्य को व्यक्त करने के लिए भिन्न २ साधनों का उपयोग किया जा सकता है । कोई संगीत के द्वारा कोई मूर्ति के द्वारा तो कोई चित्रों के द्वारा उसे अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करता हैं । इन भिन्न २ साधनों के कारण कला के भी भिन्न २ रूप हो जाते हैं । इन भिन्न २ रूपों के होने पर भी उसका मूल उद्देश्य एक ही है-सत्य, शिव और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति । जैनमूर्तिनिर्माण कला, जैनस्थापत्यकला, जैनचित्रकला और जैन संगीतकला की यही लाक्षणिकता है कि इस में आध्यात्मिक सत्य, शिव और सौन्दर्य की विशेषतया अभिव्यक्ति हुई है । Ja गाँधीजी का कथन है कि "वास्तविक कला वही है जो भोग को नहीं किन्तु त्याग को जागृत करती है ।" गांधीजी का उक्त कथन जनकला के उद्देश्य से प्रायः मिलता जुलता ही है । • जैनमन्दिर, मूर्तियाँ, गुफाएँ, तूप, चित्र और संगीत आध्यात्मिक आनन्द की लहरी को उत्पन्न करते हैं । इन सब कलाप्रतीकों से अनुपम शान्ति का स्रोत फूट पड़ता है । यहीं जैनकता की विशेषता है।" XXXXXXX (६) 200
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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