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________________ >#<<<><><★ ★>>>><<>>E जैन - गौरव - स्मृतियाँ "" 冬冬冬冬冬冬 ... भारतीय चित्रकला के समर्थ अभ्यासी श्री नानालाल महता जैन शिल्पकला पर अपना अभिप्राय व्यक्त करते हुए कहते हैं: " नन्दवंश के राज्यकाल से लेकर लगभग ई० सन् की पन्द्रहवीं शताब्दी तक के भारतीय शिल्पकला के नमूने विद्यमान हैं । प्राचीन काल में स्थापत्य के आभूषण के रूप में मूर्तिविधान और चित्रालेखन का विकास हुआ था । ललितकलाओं में हमारा स्थापत्य और प्रतिमानिर्माण समस्त कला के इतिहास में विशेष महत्वपूर्ण हैं । इसमें भी मुख्यरूप से मूर्ति विधान तो हमारी संस्कृति, धमभावना और विचारपरम्परा का मूर्त स्वरूप है | आरम्भ से लेकर मध्यकाल युग के अन्त तक हमारे शिल्पकारों ने अपनी धार्मिक और पौराणिक कल्पना और हृदय की प्राकृत भावना का दिग्दर्शन कराया है। जैनधर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है और इसका प्रतिविम्ब इसके मूर्तिनिर्माण में आदि से लेकर अन्त तक एकसमान पड़ा हुआ मिलता है । ई० स० के आरम्भ की कुशाण राज्यकाल की जैन प्रतिमाएँ मिलती हैं और सैकड़ों वर्षों के बाद जो मूर्तियाँ बनी हैं उनमें वाह्यदृष्टि से बहुत थोड़ा भेद दिखाई देता है । जैन अर्हत की कल्पना में श्री महावीर स्वामी के समय से लेकर हीरविजयसूरि के काल तक में कोई गहरा परिवर्तन हुआ ही नहीं । अतः जैसे बौद्धकला के इतिहास में महायानवाद के प्रादुर्भाव से जैसे धर्म का और इसके कारण सारी सभ्यता का स्वरूप 'बदल गया वैसे जैनललितकला के इतिहास में नहीं हुआ । जैन मूर्तियों की रचना करने वाले प्रायः भारतीय ही रहे हैं परन्तु जैसे मुसल - मानी शासनकाल में भारतीय शिल्पियों ने इस्लाम के अनुकूल इमारतें बनाई उसी तरह प्राचीन शिल्पियों ने भी जैन और बौद्ध प्रतिमाओं में उस २ धर्म की भावनाओं को लेकर वैसे ही भाव अंकित किये। जैनतीर्थङ्कर की मूर्त्ति विरक्त, शान्त और प्रसन्न होनी चाहिए। इसमें मनुष्य हृदय के निरन्तर विग्रह और अस्थायी भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता हैं। जैनकेवली को यदि हम निर्गुण कहें तो कोई असत्य नहीं होगा । इस निर्गुणता को मूर्त रूम देने जाते हुए सौम्य और शान्ति की मूर्ति ही. प्रकट हो सकती है, इसमें स्थूल आकर्षण या भावना की प्रधानता नहीं हो सकती । अतः जैनप्रतिमा इसकी मुखमुद्रा से तत्काल ही पहचानी जा 2000
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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