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________________ * जैन गौरव-स्मृतियां See ... जैन साहित्य को इसके प्रतिस्पर्धियों के द्वारा बहुत क्षति उठानी पड़ी है, इसलिए अपने अवशिष्ट साहित्य की सुरक्षा के लिए नियो ने उसे भण्डारों में रख दिया था। आगे चलकर इस ओर लक्ष्य की न्यूनता से वह साहित्य दीमकों का शिकार होगया । इस परिस्थिति से बचकर भी जो साहित्य विद्यमान रहा है वह भी विद्वानों को उपलब्ध नहीं है । इसका कारण भण्डारों के स्वामियों की अदूरदर्शिता और समय को पहचानने की अकुशलता है। ऐसी स्थिति में, जबकि जैनसाहित्य पर्याप्त मात्रा में अनुपलब्ध था तब पुरातत्त्व की खोज करते समय पूर्वीय भाषाएँ जानने वाले युरोप के विद्वानों को, जैनधर्म का ज्ञान प्राप्त करने के लिए ब्राह्मण ग्रन्थों का आश्रय लेना पड़ा । वहाँ उन्हें जैनधर्म का जो विकृत रूप दिखाई दिया उस पर से ही उन्होंने अपने अनुमान बाँधे । यही कारण है कि वे सत्य को न पा सके और भ्रान्त विचारों पर जा पहुंचे। 'अब वेदधर्म के मान्य वेदों, पुराणों और अन्य ग्रन्थों के उद्धरण देकर यह सिद्ध करेंगे कि जैनधर्म वेद काल से पहले भी अस्तित्त्व में था। इसके पहले काल क्रम की दृष्टि से एक बात उल्लेख करना आवश्यक है वह यह है - शाकटायन एक जैन वैयाकरण थे। ये आचार्य किस काल में हुए इसका प्रामाणिक कोई उल्लेख नहीं मिलता, तदपि यह निर्विवाद है कि ये आचार्य प्रसिध्द वैयाकरण पाणिनि से बहुत प्राचीन है। इसका करण यह है कि पाणिनि रिषि ने अपनी अष्टाध्यायी में “व्योलघुप्रयत्नतरः शाकटायनस्य" इत्यादि सूत्रों में शाकटायन का नामोल्लेख किया है जो शाकटायन की. पाणिनि से प्राचीनता को प्रमाणित करता है। अब विचारना है कि पाणिनि का समय कौनसा है ? इतिहासकारों और पुरातत्त्वविदों ने महर्षि पाणिनि का समय ईस्वी सन् पूर्व २४०० वर्ष वतलाया है। इससे सिद्ध होता है कि पाणिनि रिषि आज से चार हजार तीन सौ पचास वर्ष पूर्व हुए हैं। शाकटायन इससे भी प्राचीन हैं.। इसका नाम यास्क के निरुक्त में भी आता है । ये यास्क पाणिनि से कई शताब्दियों पहले हुए हैं। रामचन्द्र घोष ने. अपने 'पीप इन्टु दी वैदिक एज' नामक ग्रन्थ में लिखा है कि 'यारल कृति निरुक्त को हम बहुत प्राचीन समझते हैं। यह ग्रन्थ वेदों को छोड़कर संस्कृत के सबसे प्राचीन साहित्य से सम्बन्ध रखता है। इस बात से यही सिद्ध होता है, AMRM SOAMAN SINESAME R 661
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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