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________________ | ★ जैन- गौरव-स्मृतियां व्यय को 'पर्याय' और धौव्य को 'द्रव्य' के नाम से कहा जाता है। इस तरह वस्तु का स्वरूप द्रव्यपर्यायात्मक है । द्रव्यवरूप नित्य है और पर्यायस्वरूप नित्य है कहा भी है। 5 " द्रव्यात्मना स्थितिरेव सर्वस्यवस्तुनः, पर्यायात्मना सर्व वस्तूत्पद्यते विपद्यते वा" द्रव्यरूप से सब पदार्थ नित्य हैं, और पर्याय की अपेक्षा से सब पदार्थ उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं अतएव अनित्य हैं । समर्थविद्वान् श्री समन्तभद्राचार्य ने उत्पाद व्यव और धौव्य को एक और ही युक्ति द्वारा प्रमाणित किया है। उन्होंने लिखा है: घटमौलि सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ।। कल्पना करिये कि तीन व्यक्ति एक साथ किसी सुनार की दुकान पर गये । उनमें से एक को स्वर्णघट की, दूसरे को मुकुट की और तीसरे को केवल स्वर्ण की आवश्यकता है । वहाँ जाकर वे देखते हैं कि सुनार सोने के बने हुए घड़े को तोड़कर उसका मुकुट बना रहा है । सुनार के इस कार्य को देखकर उन तीनों मनुष्यों के मन में भिन्न २ प्रकार के भाव पैदा हुएं । जिसे स्वर्णघट की आवश्यकता थी उसे शोक हुआ, जिसे मुकुट की आवश्यकता थी वह प्रसन्न हुआ और जिसे केवल स्वर्ण की ही आवश्कता थी उसे न हर्ष हुआ और न शोक | वह अपने मध्यस्थ भाव में रहा । यहाँ यह प्रश्न होता है कि यह भाव-भेद क्यों ? अगर वस्तु उत्पाद-यव- ध्रौव्यात्मक न हो तो इस प्रकार के भावभेद की उपपत्ति कभी नहीं हो सकती। घटप्राप्ति की इच्छा से आने वाले पुरुष को घट के विनाश से शोक और मुकुटार्थो को मुकुट की उत्पत्ति का हर्ष और स्वर्णार्थी को न हर्ष और न शोक हुआ इससे यह प्रतीत होता है कि घट के विनाश काल में ही मुकुट उत्पन्न हो रहा है और दोनों अवस्थाओं में स्वर्णद्रव्य स्थित है तब तो उन तीनों को क्रमशः शोक, हर्ष और मध्यस्थ भाव हुआ । यदि घट - विनाश काल में ***XXXXXXXXXXXXX (?) XXXXXX XX XXX (२७०
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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