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________________ See- जैन-गौरव-स्मृतियां बटाट के बिना नह। जहाँ हम का भी अविरु 4. यह आशंका की जा सकती है कि जो उत्पन्न होता है.वह भला ध्रुव कैसे रह सकता है ? इसका समाधान यह कि उत्पत्ति और विनाश, ध्रुवता के बिना नहीं हो सकते और ध्र वता, उत्पत्ति एवं विनाश के बिना स्वतंत्र नहीं हो सकती। जहाँ हम वस्तु की उत्पत्ति और विनाश का अनुभव करते हैं वहाँ पर उसकी स्थिरता का भी अविकल रूप से भान होता है । तथा च जहाँ ध्रुवता का भान होता है वहाँ कथञ्चित् उत्पत्ति और विनाश अवश्य प्रतीत होते हैं। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की त्रिपुटी एक दूसरे के बिना नहीं रहती। उदाहरण के लिए एक स्वर्ण-पिण्ड को ही लीजिए। __ प्रथम सुवर्ण-पिण्ड को गला कर उसका कटक ( कड़ा) वना लिया गया । फिर कटक को तोड़ कर उसका मुकुट तय्यार किया गया । यहाँ स्वर्ण-पिण्ड के विनाश से कटक की उत्पत्ति और कटक के ध्वंस से मुकुट कात्पन्न होना देखा जाता है परन्तु इस उत्पत्ति, विनाश के सिलसिले में मूलवस्तु स्वर्ण की सत्ता बराबर विद्यमान है । इससे यह सिद्ध हुआ कि उत्पत्ति और विनाश वस्तु के आकार-विशेष का-पर्याय का होता है न कि मूलवस्तु का । मूलवस्तु तो लाखों परिवर्तन होने पर भी अपनी स्वरूप स्थिरता से च्युत नहीं होती । कटक, कुण्डलादि स्वर्ण के आकार विशेष हैं; इन आकार-विशेषों की ही उत्पत्ति और विनाश होना देखा जाता है। इनका मूलतत्व स्वर्ण उत्पत्ति और विनाश से अलग है। इस उदाहरण से यह प्रतीत हुआ कि पदार्थ में उत्पत्ति, विनाश और स्थिति ये तीनों ही धर्म स्वभावसिद्ध हैं। .. . किसी भी वस्तु का आत्यन्तिक विनाश नहीं होता । वस्तु की किसी आकृति-विशेष के विनाश से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वह वस्त सर्वथा नष्ट हो गई। आकृति के बदलने मात्र से किसी का सर्वथा नाशं नहीं होता । जैसे बालदत्त बाल्यावस्था को छोड़कर युवा होता है और युवावस्था को छोड़कर वृद्ध होता है इससे जिनदत्त का नाश नहीं कहा जा सकता है। जैसे सर्प फणावस्था को छोड़कर सरल हो जाता है तो इस आकृति के परिवर्तन से उसका नाश होना नहीं माना जाता है । इसी तरह आकृति के बदलने से वस्तु का नाश नहीं हो जाता है। इसी प्रकार से कोई भी वस्त सर्वथा नवीन नहीं उत्पन्न होती है अतः जगत् के सव पदार्थ उत्पत्ति, विनाश और स्थिति-शील हैं, यह बात भलीभांति प्रमाणित हो जाती है । उत्पाद और.
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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