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________________ * जैन-गौरव-स्मृतियां ★ मुकुट की उत्पत्ति न मानी जाय तो घटार्थी पुरुष को शोक और मुकुटार्थी को हर्ष का होना दुर्घट-सा हो जाता है। इसी तरह घट-मुकुटादि स्वर्ण-पर्यायों में स्वर्णरूप कोई द्रव्य न माना जाय तो स्वार्थी पुरुष के मध्यस्थभाव की उपपत्ति नहीं हो सकती है । परन्तु सुनार के एक ही कार्य से शोक, प्रमोद और माध्यस्थ तीनों भाव देखे जाते हैं ये निर्निमित्तिक नहीं हो सकते, इसलिए वस्तु के स्वरूप को उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य युक्त ही मानना चाहिए। .. एक और भी लौकिक उदाहरण से पदार्थ उत्पाद-व्यव-ध्रौव्यात्मक सिद्ध होता है । वह इस प्रकार है। - ... पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्वं त्रयात्मकम् ॥ .. .. जिस पुरुष को केवल दुग्ध ग्रहण का नियम है वह दही नहीं खाता, जिसको दधिग्रहण का नियम है वह दुग्ध का ग्रहण नहीं करता, परन्तु जिस व्यक्ति ने गौ-रसका त्याग कर दिया हो वह न दूध ही खाता और न दही ही। इस व्यावहारिक उदाहरण से दुग्ध का विनाश, दधि की उत्पत्ति और गोरस की स्थिरता ये तीनों ही तत्त्व प्रमाणित होते हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने लिखा है : उत्पन्नं दधिभावेन नष्टं दुग्धतया पयः । गोरसत्वात् स्थिरं जानन स्याद्वादद्विड् जनोऽपि कः ॥ . अर्थात्-दृध जब दधि-रूप में परिणित होता है तब दूध का विनाश और दही का उत्पाद होता है परन्तु गोरस द्रव्य स्थिर रहता है। ऐसी अवस्था में कौन स्याद्वाद का निषेध कर सकता है। उपर्युक्त विवेचन से वस्तु उत्पाद-व्याय-ध्रौव्यात्मक है यह भलीभांति प्रमाणित हो जाता है। - उपर्युक्त कथन से वस्तु के दो रूप सिद्ध होते हैं-एक विनाशी और दूसरा अविनाशी । उत्पाद और व्यय विनाशी स्वरूप हैं और ध्रौव्य अविनाशी स्वरूप है । पारिभाषिक शब्दों में इसे "पर्याच" और "द्रव्य" कहा है। जैनदर्शन किसी भी पदार्थ को एकान्तनित्य अथवा एकान्तअनित्य
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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