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________________ Sise* जैन-गौरव-स्मृतियां आदि की व्यवस्था घटित नही हो सकती है । क्योंकि वह विज्ञान क्षण प्रथम समय में तो अपनी उत्पत्ति में मग्न रहता है, उस समय दूसरी क्रिया कर ही नहीं सकता और दूसरे क्षण में तो वह नष्ट ही हो जाता है तो क्रियाओं का अवकाश ही कहाँ रहा ? यदि क्रिया कर भी ले तो उसका फल-कैसे हो सकेगा ? प्रथम क्षण में सो वह क्रिया कर रहा है उसका फल तो अवान्तर क्षण में होना सम्भव है; दूसरे क्षण में तो वह अष्ट हो जाता है. तो उसका फल कौन भोगेगा ? यदि यह कहा जाय कि नष्ट होने वाला विज्ञान अपने समान दूसरे विज्ञान को पैदा करके नष्ट होता है तो कृत-प्रणांश और श्रकृतकर्म भोग का दोष होता है। जिस विज्ञान ने शुभाशुभ कर्म किया है वह तो उसका फल भोगे विना ही नष्ट होगया और जिस विज्ञान को फल भोगना पड़ा उसने वह कार्य किया ही नहीं। तात्पर्य यह है कि क्षणिकवाद में या विज्ञान-प्रवाह वाद में शुभाशुभ क्रियाओं की संघटना भी नहीं हो सकती है। इसके बिना कर्म व्यवस्था और लोक व्यवस्था भी नहीं बन सकती है । अतः यह विज्ञान-प्रवाह वाद असंगत है। अतः इस विज्ञान-प्रवाह में अनुगत रहने वाले आत्मद्रव्य की सत्ता स्वीकार करनी चाहिए। . ___अनात्मवादियों की मीमांसा कर चुकने और आत्मा की सिद्धि हो जाने के पश्चात् अव आत्म-स्वरूप का निरुपण करना समुचित है अतः सर्वप्रथम जैन दर्शन सम्मत आत्म स्वरूप का उल्लेख किया आत्म-स्वरूप जाता है: जीवो उव ओगमओ, अमुत्तो, कत्ता, सदेह परिमाणो। भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ॥ अर्थात् जीव उपयोग वाला और अमूर्त है । संसारस्थ आत्मा कर्ता, .. स्वदेह परिमाण, और भोक्ता, है । (कर्म रहित होने पर ) स्वाभाविक : ऊर्ध्वगति वाला जीव सिद्ध हो जाता है . इसको वादिदेवसूरि ने इन शब्दों में कहा है:-चैतन्यस्वरूपः, परिणामी, कर्ता, साक्षाभोक्ता, स्वदेह परिमारणः, प्रति क्षेत्रे विभिन्नः पौद् गालि कादृष्टवांश्वायम् । यह जैनदर्शन सम्मल आत्मा का लक्षण है। इन्हीं लक्षणों पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार करना है XXXXKKRAMKREACK (२००) XXXKAKIKXXXXX
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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