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________________ Scil जैन-गौरव-स्मृतियां *Seri et आत्मा उपयोगमय अर्थात् ज्ञानमय है। ज्ञान आत्मा का असाधारण धर्म है । आत्मा ज्ञान का पिण्ड है । ज्ञान और आत्मा में धर्म और धर्मी का-गुण अथवा गुणी का-तादात्म्य सम्बन्ध है। उपयोग मय आचारांग सूत्र में कहा गया है कि: जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया जो आत्मा है वही जानने वाला विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वही आत्मा है । यह सूत्र आत्मा और ज्ञान का अभेद बताता है। यह अभेद गुण और गुणी की अभेद विवक्षा से है । आत्मा गुणी है और ज्ञान उसका असाधारण गुण है । गुण और गुणी में अभेद होता है। कोई यह शंका कर सकता है कि यदि ज्ञान और आत्मा अभिन्न है तो एक ही वस्तु होना चाहिए । ज्ञान और आत्मा की भिन्न प्रतीति नहीं होनी चाहिए । इसका समाधान यह है कि यहाँ अभेद बताया गया है, ऐक्य नही । ज्ञान और आत्मा में-धर्म और धर्मी में अभेद है, ऐक्य नहीं है । अतएव यह शंका निर्मूल है। आत्मा' का लक्षण ज्ञान है । ज्ञान ही उसका असाधारण गुण है आत्मा को छोड़ कर ज्ञान अन्यत्र नहीं रह सकता और आत्मा कभी ज्ञान से सर्वथा रहित नहीं हो सकती । अतएव ज्ञान ही आत्मा का स्वरूप है । - सांख्य और वेदान्त दर्शन तो आत्मा को ज्ञानमय मानते हैं परन्तु नैयायिक ( न्याय दर्शन ) और वैशेषिक दर्शन ज्ञान को आत्मा का स्वरूप नहीं मानते । उनके मत से ज्ञान भिन्न वस्तु है नैयायिक-मान्यता और आत्मा भिन्न वस्तु है । न्याय दर्शन के अनुसार जीव जब मुक्त होता है तब बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार-इन नौ गुणों का आत्यन्तिक विनाश होता है। यदि वे ज्ञान और जीव को अभिन्न माने तो मुक्त दशा में बुद्धि का नाश होने पर जीव के नाश का भी प्रसंग मा जाय । इस लिए वे जीव और ज्ञान को भिन्न २ मानते हैं। नैयायिकों और वैशेषिकों का उक्त कथन युक्ति संगत नहीं है । यदि ज्ञान को प्रात्मा से सर्वथा भिन्न मान लिया जाता है तो ज्ञान से आत्मा को
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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