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________________ SSS जैन गौरव-स्मृतियाँ दर्शन से सहमत है। परन्तु ऐसा होते हुए भी वह आत्मा रूप सत् पदार्थ का ___अस्तित्व नहीं मानता है। वह पर्यायवादी दर्शन है । बौद्ध दर्शन का पूर्वोत्तर पयायों को वह स्वीकार करता है परन्तु उन विज्ञान-प्रवाह . पूर्वात्तर पर्यायों में अनुगत रूप से रहने वाले द्रव्य को वह नहीं स्वीकार करता है । स्थूल दृष्टान्त के रूप में यह कहा जा सकता है कि बौद्ध दर्शन मुक्ताहार के मोतियों को ही स्वीकार करता है उन मुक्ताओं में अनुगत रूप से रहे हुए सूत्र ( डोरे) को नहीं मानता है। वह विज्ञान-प्रवाह को स्वीकार करता है परन्तु इस विज्ञान-प्रवाह में अनुगत रूप से रहने वाले किसी आत्म द्रव्य को स्वीकार नहीं करता है । “पूर्वज्ञानक्षण, उत्तरज्ञान क्षण का कारण है; उत्तरज्ञान क्षण, पूर्वज्ञान क्षण का कार्य है। इस तरह ज्ञान प्रवाह में कार्य-कारण भाव रहता है। यह परस्पर भिन्न क्षणिक विज्ञान-समूह ही सत् है । इसके अतिरिक्त आत्मा या जीव जैसी कोई वस्तु नहीं है" यह बौद्ध दर्शन का मन्तव्य है। बौद्ध दर्शन में वस्तुमात्र क्षणमात्र स्थायी है । अपने उत्पत्ति क्षण के दूसरे सी क्षण में वह निरन्वय नष्ट हो जाती है। इस क्षणवाद के कारण पूर्वोत्तर क्षण में टिके रहने वाले आत्मा द्रव्य को बौद्ध दर्शन ने अस्वीकृत कर दिया । परन्तु वास्तविक विचारणा करते हुए यह क्षणवाद टिके नहीं सकता है। यदि वस्तु एक क्षण ठहर कर दूसरे ही क्षण सर्वथा नष्ट हो जाती है तो "यह वही है" "मैं वही हूँ" इत्यादि अनुसन्धानात्मक ज्ञान नहीं होना चाहिये यह प्रतीति अवश्य होती हैं इसलिए क्षणवाद युक्ति युक्त नहीं है। बौद्ध सम्मत विज्ञान-प्रवाह का पूर्वविज्ञान और उत्तरविज्ञान सर्वथा भिन्न माना जाता है यदि इन दो भिन्न विज्ञानों को जोड़ने वाला कोई एक सत् पदार्थ न हो तो क्षणिक विज्ञान समह में क्रम, व्यवस्था और शृंखला - कैसे घटित हो सकती है ? ऐसी शृंखला न हो तो स्मृति और प्रत्यभिज्ञान (यह वही है इस प्रकार का जोड़ स्प ज्ञान ) कैसे हो सकते हैं ? सर्वथा भिन्न ज्ञान समूह में से एक के अनुभव की स्मृति दूसरे को कैसे हो सकती है ? तवाित्म वको माने विना इस प्रकार का स्मरण कभी सम्भव नहीं है। अनुगत रूप से रहने वाले आत्मद्रव्य को न मानकर यदि केवल विज्ञान-प्रवाह ही स्वीकार किया जाता है तो धर्म-यधर्म, पुल्य पाप, स्वर्ग-नरक
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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