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________________ हुन्छ - जैन - गौरव - स्मृतियाँ संसार के प्रायः सब धर्मों और धर्मशास्त्रों ने ब्रह्मचर्य का यशोगान किया है । जैन धर्म संयम प्रधान धर्म है अतः इसमें इस व्रत का बहुत ही अधिक महत्त्व है । प्रश्न व्याकरण सूत्र में कहा गया है कि "हे जम्बू ! यह ब्रह्मचर्य तप, नियम, ज्ञान दर्शन चारित्र सम्यक्त्व और विनय का मूल है । यम-नियम आदि गुणों का आधार है । जिस प्रकार पर्वतों में हिमवान प्रधान है. इसी तरह सब यमनियमों में ब्रह्मचर्य प्रधान है तेजोमय है प्रशस्त है और गम्भीर है । ब्रह्मचर्य व्रत के आराधना करने पर तप विनय क्षमा गुप्ति मुक्ति आदि आराधना हो सकती है। यह सद्गुणों का मूल हैं।" "तवेसु उत्तमं बंभचेरं" कह कर इस व्रत की महानता प्रकट की गई है । .. - मन, वचन और कर्म के द्वारा परिपूर्ण ब्रह्मचर्य की आराधना करना मुनि धर्म है। इस कोटि पर पहुँचनेवाले विरले व्यक्ति होते हैं। गृहस्थ साधक के जीवन का लक्ष्य- विन्दु यद्यपि पूर्ण ब्रह्मचर्य के पालन का होता है परन्तु अपनी कमजोरी के कारण वह मर्यादित ब्रह्मचर्य स्वीकार करता है । अपनी विवाहिता पत्नी के साथ मर्यादित सम्भोग की छूट रख कर संसार भर की समस्त नारियों से अब्रह्म सेवन का त्याग करता है । वह स्वयं स्त्री संतोष व्रत अंगीकार करता है और अपनी पत्नी के साथ भी अमर्यादित अब्रह्म का परित्याग करता है । गृहस्थ के विवाह का उद्देश्य विषय वासना भोग विलास करना नहीं होता है अपितु अपनी निरंकुश विषयेच्छा पर अंकुश लगाना ही उसका पवित्र उद्देश्य होता है । इस उच्च आशय से विवाह के बन्धन में बंधकर विषयेच्छा को मर्यादित कर लेता. है और सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य के लक्ष्य बिन्दु पर पहुँचने की शक्ति प्राप्त करने का अभ्यास करता है । जो व्यक्ति विवाह के आदर्श को समझता है वह अपनी पत्नि के प्रति श्रमर्यादित नहीं होता है फिर पर स्त्री का सेवन तो कर ही कैसे सकता है ? गृहस्थ साधक (श्रावक) स्वयं स्त्रीसन्तोष व्रत में इतना पक्का होता है कि यदि उसके सामने उर्वशी या. रति के समान सौन्दर्य में उभराती हुई सुन्दरी खड़ी होकर रति की याचना करें तो भी वह अपने व्रत से विचलित नहीं होता है। । : "" मर्यादित ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले गृहस्थ को भी विशेषकर इन कार्यों का त्याग करना होता है: - ( १ ) किसी रखैल के साथ सम्भोग Nooooo (१५७)XX
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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