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________________ ★ जैन - गौरव -स्मृतियां + को दबा कर दीवाला निकाला, असली वस्तु में नकली मिला कर उसे असली वताना, एक वस्तु बता कर दूसरी देना या लेना, कम देना ज्यादा लेना, झूठे दस्तावेज लिखवा लेना, सार्वजनिक संस्थाओं के नाम पर या धर्म के नाम पर धन एकत्रित कर उसे नाम बतौर खर्च करके शेष हड़प जाना, मिथ्या विज्ञापन द्वारा दूसरों का धन हरण करना आदि २ विविध उपायों के द्वारा सभ्य चोरी का अवलम्बन लिया जा रहा है। यह सब जधन्य प्रवृतियाँ स्थूल अदत्तादानं हैं । गृहस्थ साधक के लिए भी इनका त्याग आवश्यक बताया गया है । अस्तेयव्रत की आराधना करने वाले गृहस्थ को विशेष कर निम्नलिखित कार्यों का त्याग करना चाहिये । (१) चोरी का माल खरीदना (२) चोरी में सहायता करना (३) विरोधी राज्य की सीमा में जाना-आना अथवा राज्य की सुव्यवस्था के विरुद्ध कार्य करना (४) झूठे तोल-माप रखना (५) मिश्रण कर अशुद्ध चीजें बेचना आदि २ । : - प्रत्येक व्यक्ति को अपनी वस्तु और अपना अधिकार जीवन तुल्य प्रिय होता है । उसका अपहरण हो जाने से जीव को बहुत दुख होता है । इसलिए दूसरे की वस्तु का किसी उपाय से अपहरण चोरी तो है ही परन्तु बड़ी भारी हिंसा भी है । अतः चोरी करना भयंकर पाप और हिंसा है । इससे बचने के लिए अस्तेय व्रत अंगीकार करना चाहिए। :.. " H : • ब्रह्मचर्य का वास्तविक अर्थ है ब्रहा - आत्मा में रमण करना यह आत्म रमण अन्तर्ध्यान और अन्तर्ज्ञान से हो सकता है । इसके लिए वाह्य पदार्थों से. विमुख होना आवश्यक है । जब तक बाह्य पदार्थों में आसक्ति . ब्रह्मचर्य व्रत बनी रहती है तब तक अन्तर्ध्यान और अन्तर्ज्ञान नहीं हो सकता है। इसलिए बाह्य पदार्थों की ओर दौड़नेवाले मन और इन्द्रियों का संयम करना आत्म-स्मरण के लिए आवश्यक है । सव इन्द्रियों का मन, वाणी और कर्म से सर्वदा तथा सर्वत्र संयम करना ही ब्रह्मचर्य है । इतना व्यापक अर्थ होते हुए भी सामान्य तौर से जननेन्द्रिय के संयम के अर्थ में यह शब्द रूढ़सा हो गया है । कामभोगों की ओर प्रवृत्त होने वाली इन्द्रियों का परिपूर्ण निग्रह करना, मन वचन और तन में लेश मात्र भी विषय विकार न आने देना तथा काम वासना पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त करना परिपूर्ण ब्रह्मचर्य है । * = XXXpXXKKYY•»X+(?«q)❀XXXXXXXXXXX (१५६)XX
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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