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________________ * जैन गौरव-स्मृतियां ★ . सत्यव्रत के आराधक को हित, मित प्रिय और सत्य भाषण करना चाहिये । वृथा वकवाद से बचना चाहिये। अधिक बोलने से असत्य-भाषण की नौबत आ ही जाती है। इस लिए मितभाषी होना चाहिये। दूसरे के अन्तः करण पर मधुर असर करने वाले वचन बोलने चाहिये । किसी के दिल को दुःखाने वाले निन्दा-विकथा के शब्द चापलूसी अविवेक पूर्ण, वचन अप्रासंगिक वचन आदि दोषों से बच कर हितकर मृदु प्रिय और परिमित भाषण करना चाहिये । सत्य और अहिंसा ही धर्म की आत्मा है। इन की निर्मल आराधना से आत्मा निर्मल बन जाती है। सत्य की महिमा अपरम्पार है। त्यागी और गृहस्थ साधक का तीसरा व्रत अस्तेय-व्रत है। दूसरे के . अधिकार में रही हुई वस्तु का उसकी स्वीकृति के बिना ग्रहण करना अदत्ता दान कहलाता है । दूसरे के अधिकारों का अपहरण करना भी अस्तेयवतः- चोरी है । मन, वाणी और क्रिया से सूक्ष्म या स्थूलं, अल्प मूल्यवाली या वहुमूल्य, सचित्त या अचित्त किसी प्रकार की वस्तु स्वामी की आज्ञा के बिना स्वयं ग्रहण न करना,. दूसरों को ग्रहण करने की प्रेरणा न करना और ग्रहण करने वाले को अनुमोदन न देना सम्पूर्ण अस्तेय व्रत है। त्यागी साधक तीन करण तीन योग से--मनसा-वाचाकर्मणा-कृत-कारित-अनुमोदन से इसका सर्वांश से पालन करने का प्रयास करता है। यह तीसरा महावत है । गृहस्थ साधक इतनी सूक्ष्मता से इस का पालन नहीं कर सकता है, अतः वह स्थूल अदत्तादान का त्याग करने की प्रतिज्ञा लेता है। स्थूल अदत्तादान वह है जिसके सेवन से व्यक्ति दुनिया की दृष्टि में चोर समझा जाता है, राजदण्ड का पात्र होता है और शिष्ट पुरुषों में लज्जित होना पड़ता है। दुष्ठ अध्यवसाय और उपाय से किसी के अधिकारों को हड़प लेना स्थूल अदत्तादान है। सेंध लगाना, जेबकतरना, डाका डालना, ताला तोड़ कर माल निकाल लेना, मार्ग में मिली हुई वस्तु के स्वामी का पता होने पर भी उसे स्वयं रख लेना, किसी को धोने में उतारना आदि २ स्थूल अदत्तादान है। आज कल चोरी करने के कई सभ्य उपाय भी निकल आये में हैं। काला बाजार करना, अधिक मुनाफा कमाना, रिश्वत देना लेना, धन
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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