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________________ ><><>★ जैन- गौरव -स्मृतियां का कौशल मात्र है । शान्ति स्थापन के वहाने अपने संकीर्ण राष्ट्रीय स्वार्थो की पूर्ति का नाटक खेला जा रहा है । शान्ति की स्थापना के लिए यू० एन० ओ० . जैसी संस्थाओं को जन्म दिया गया है परन्तु इससे शान्ति स्थापित होने की आशा करना दुराशा मात्र है । यह तो विश्वशान्ति और न्याय काएक नाटक मात्र है। यदि वास्तविक दृष्टिकोण से देखा जाय तो यह सवल राष्ट्रों की स्वार्थ पूर्ति का साधन मात्र है । इसका कारण यह है कि सब राष्ट्रों के नायकों के मन में एक दूसरे के प्रति सशंक भावना है । राजनैतिक संधियाँ हो जानेपर भी मन आशंकाएँ बनी रहती हैं अतः उन सन्धियों का जिन्हें वे अपने हस्ताक्षरों से सुशोभित करते हैं रद्दी के टुकड़ों से अधिक महत्त्व नहीं होता। ये राजनैतिक वादे सचाई और ईमानदारी से नहीं किये जाते । इनके पीछेतो केवल स्वार्थ और व्यक्तिगत लाभकी भावना काम करती हैं। ऐसी परिस्थिति में कोई सम्भावना नहीं कि दुनियां में शान्ति स्थापित हो । शान्ति की स्थापना के लिए तो आवश्यक्ता है- राजनैतिक चालों की समाप्ति और अहिंसा की हार्दिक स्वीकृति | आधुनिक राजनीति शान्ति विज्ञान के सर्वथा विरुद्ध है। वर्तमान राजनीति में वह घातक तत्व है जिससे विश्व पर संकट के मेघ गिरे रहते हैं, आँसुओं की नदियाँ बहती रहती हैं और विश्व शान्ति तलवार की धार पर लटकती रहती है। कार्यकारण का सर्व सम्मत सिद्धान्त यही है कि जो जैसा बोएगा वह वैसा पायेगा । हिंसा से हिंसा और द्वेष से द्वेष पनपते हैं । जो युद्ध हिंसा, द्वेष और क्रूरता से लड़े जाते हैं उनसे हिंसा, द्वेष और क्रूरता ही चढ़ती है । गत महायुद्ध के कारण आगामी महायुद्ध का बीजारोपण हो गया. है। यह कार्यकारण की परम्परा इसी तरह चलती रही तो दुनिया में कभी शान्ति के दर्शन नहीं हो सकते । यदि दुनिया को वास्तविक शान्ति की कामना है, यदि सब राष्ट्र सच्चे य से शान्ति चाहते हैं, तो इसका एक मात्र उपाय हैं हिंसक साधनों की मजोरी का स्वीकार और हिंसा की अमोघ शक्ति का अंगीकार । जैन धर्म, विश्व शान्ति का यही राजमार्ग प्रदर्शित करता है । इसको अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्त विश्व शान्ति के अमोघ साधन है । इन दोनों सिद्धान्तों की और यदि दुनिया के राष्ट्रों का ध्यान आकर्षित हो तो निस्संदेह दुनिया में शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो सकता है । आज के वातावरण में जो विश्व XXX४(१३४)XXX
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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