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________________ See * जैन-गौरव-स्मृतियां ★ e , वर्ण आदि की रोक-टोक नहीं है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, कोई भी हो वह इसका अधिकारी है। चाहे जिस देश में रहने वाला, चाहे जैसी भाषा बोलने वाला चाहे जिस कुल में जन्म लेने वाला, चाहे जैसे वय और लिंग वाला व्यक्ति इसे अंगीकार कर सकता है । जीव मात्र को इसे अपनाने की स्वतन्त्रता हैं । इसका कारण यह है कि जैनधर्म बाह्य धर्म न होकर आध्यासिक धर्म है । वह प्रत्येक जीव में अनन्त शक्ति रही हुई मानता है। प्रत्येक . जीव अपने पुरुषार्थ के द्वारा अपनी अनन्त शक्ति को प्रकट कर सकता है । प्रत्येक प्राणी को विकास का जन्म सिद्ध अधिकार है। जैनधर्म की इस उदात्त दृष्टि के कारण वह सार्वभौम है और उसके सिद्धांत भी सार्वभौम हैं। सार्वभौमिकता की कसौटी क्या है ? इसका उत्तर यह है कि जो वस्तु सब जगह सबकाल में समान रूप से हित करने वाली है वह सार्वभौम है। जैनधर्म के सिद्धान्त इस कसौटी पर कसने से बिल्कुल खरे उतरते हैं • विश्व-शांति अवश्य वे सार्वभौम हैं । जैनधर्म का अहिंसा का सिद्धान्त, ___ उसका अपरिग्रह का सिद्धान्त, उसके व्रत-नियम और उसका आत्मसंयम सब जगह, सब काल में समान रूप से हितकर है। दुनिया के आकाशमण्डल में घिरेहुए संकटके बादलोंको हटानेके लिए ये सिद्धांत प्रचण्ड वायुके समान हैं। आज विश्वका वातावरण अशांत और भयाक्रांत है । युद्धकी भीषण विभीषिका मुंह बाये हुए खड़ी है। दो-दो महायुद्धों की दानवी संहारलीला देख चुकनेपर भी युद्ध के दुष्परिणामोंके प्रति राष्ट्रों के नेता आँखमिचौनी कर रहे हैं। अब भी वे अपने पुराने मन्तव्यपर डटे हुए हैं । वही पशुबलकी वृद्धि, वही दूसरे के अधिकारों को हड़पने की दानवी लालसा, वही संकीर्ण राष्ट्रीय स्वार्थ, शस्त्रों और संहारक साधनोंके आविष्कार की वही प्रतियोगिता, ये सब दुनिया को पहले से भी अधिक भयभीत कर रहे हैं। __कहा जाता है कि दुनिया में शान्ति स्थापित करने के लिए महायुद्ध लड़े गये हैं । यदि कोई राष्ट्र अपनी शक्ति के उन्माद में विश्व की शान्तिको खंडित करने का प्रयत्न करे तो उसका विरोध करने के लिए और पुनः शान्ति स्थापन करने के लिए सैनिक शक्ति बढ़ाई जाती है। लेकिन यह सारा वाणी. MEAKIKATTERTAIKINIK (१३३):XXANTERAIKEKICKET
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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