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________________ - D १७२ दशवकालिक सूत्र जब २ मन ऐसी चंचलता एवं पामर स्थिति में पहुँच जाय तब २ उसके दुष्ट वेगों को रोककर मनको पुनः संयममार्गमें किस तरह लगाया जाय उसके सचोट किन्तु संक्षिप्त उपायों का इस चूलिका में वर्णन किया गया है। गुरुदेव बोले:श्रो सुज्ञ साधको! दीक्षित (दीक्षा लेनेके वाद) यदि कदाचित् मनमें पश्चात्ताप हो, दुःख. उत्पन्न हो और संयममार्ग में चित्तका प्रेम न रहे और संयम छोडकर ( गृहस्थाश्रममें ) चले जाने की इच्छा होनी हो किन्तु संयम का वस्तुतः त्याग न किया हो तो उस समय घोडे की लगाम, हाथीके अकुंश, और नाव के पतवार के समान निम्नलिखित अट्ठारह स्थानों ( वाक्यों) पर भितुको पुनः २ विचार करना चाहिये । वे स्थान इस प्रकार हैं:[१] (अपनी आत्माको संवोधन करके यों कहे) हे आत्मन् ! इस दुःपम कालका जीवन ही दुःखमय है। टिप्पणी-संसार के जब सभी प्राणि दुःखों के चक्रमें पड़े हुए पीडित हो रहै हैं, कोई भी सुखी नहीं है तो फिर में ही क्यों संयम के समान उत्तम वस्तुको छोडकर गृहस्थाश्रमने जाऊं ? वहां जाने पर भी मुझे सुख कैसे मिल सकेगा ? जब सभी गृहस्थ अनेकानेक दुःखों से पीडित है तो में ही अकेला सुखी कैसे . रह सकुंगा ? इसलिये संयन छोडना मुझे उचित नहीं है। २] फिर हे प्रात्मन् ! गृहस्थाश्रमियों के कामभोग क्षणिक तथा ... अत्यंत नीची कोटि के हैं। ___ टिप्पणी-गाईस्थिक विषयभोग एक तो क्षणिक है, दूसरे वे कल्पित है, वास्तविक नहीं है; तीसरे उनका परिणाम अत्यंत दु:ख रूप है, चौथे
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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