SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रतिवाक्य चूलिका - (0) -- ( संयम से उदासीन साधक के मनमें संयम के प्रति प्रेम उत्पन करनेवाले उपदेश ) ११ यद्यपि भिक्षु जीवन गृहस्थजीवन की अपेक्षा संयम एवं त्यागकी दृष्टिसे सौ गुना ऊंचा एवं सात्त्विक है फिर भी वह साधक ही तो है । साधक दशा की भूमिका चाहे कितनी भी ऊंची क्यों न हो फिर भी जबतक वह साधक आत्म साक्षात्कार की स्थिति को नहीं पहुँचता और जबतक उसके हृदय के अन्तस्तल में अन्तर्गुप्त वासना के गहरे पडे हुए बीज जलकर खाक न हों जाँय तबतक उसको भी नियमों की वाड को सुरक्षित रखना और उनका पालन करना आव श्यक है । लाखों करोडों साधकों के पूज्य एवं मार्गदर्शक होनेपर भी उसको धार्मिक नियमों की सत्ता के सामने नतमस्तक होना ही पडता है क्योंकि चिरंतन अभ्यास का लेप इतना तो चिरस्थायी एंव मंजबूत होता है कि जिन वस्तुओं का वर्षों पहिले त्याग किया होता है, जिनका स्वप्नमें भी ध्यान नहीं होता वे भी एक छोटा सा निमित्त' मिलते ही मनको दुष्ट प्रवृत्तिकी तरफ खींच ले जाती है और कई बार उस पुराने अभ्यास की जीत भी हो जाती है । ऐसी वृत्तियों का वेग शिथिल मनवाले साधक पर तुरन्त अपना प्रभाव डालता है ।
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy