SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रतिवाक्य चूलिका कर्माधीन है, आत्मा के आधीन नहीं है तो ऐसे . कामभोगों पर मुझे मोह क्यों करना चाहिये ?. .. - [३] इस सांसारिक माया में फंसे हुए मनुष्य बडे ही मायाचारी होते हैं। टिप्पणी-इस संसार में मायाचार ही भरा पड़ा है इसलिये तो सब प्राणी दुःखी है । यदि में भी . संसार में जा पडूंगा तो मुझे भी मायाचार द्वारा दुःखी ही होना पडेगा। [४] और संयमी जीवन में दीखनेवाला यह दुःख कुछ बहुत दिनों तक थोडे ही रहनेवाला हैं ! (थोडे समय का है, थोडे समय वाद यह न रहेगा) [२] संयम छोड़कर गृहस्थाश्रम में जानेवालों को नीच से नीच मनुष्यों की खुशामत करनी पड़ती है। [६] गृहस्थाश्रम स्वीकारने से जिन वस्तुओं का मैंने एक वार वमन (उल्टी) कर दिया था उन्ही को पुनः सेवन करना पडेगा। टिप्पणी-संसारमें कोई भी मनुष्य थूकी हुई वस्तुको चाटना नहीं चाहता। विषय भोगों का एक वार में त्याग कर चुका, अब उन्हें पुनः स्वीकार करना मेरे लिये उचित नहीं है। [७] है श्रात्मन् ! त्यागकी उच्च भूमिका परसे, केवल एक बुद्र वासना के कारण गृहस्थाश्रम स्वीकारना साक्षात् नरक में जाने की तैयारी करने के समान है। [4] ग्रहस्थाश्रम में रहनेवालों को जब गृहस्थाश्रम धर्म पालना भी कठिन होता है । तो आदर्श त्याग का पालन तो वे कैसे कर सकते हैं!
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy