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________________ दशवकालिक सूत्र [४] (ग्यारहवां स्थान) सुसमाधिवंत संयमी पुरुष मन, वचन और काय से वनस्पति को हिला नहीं करते, दूसरों द्वारा हिला नहीं करते और न वैसे किसी हिंलक की प्रशंसा ही करते हैं। [१२] क्योंकि वनस्पति की हिंसा करने वाला दह मनुष्य वनस्पति के श्राश्रय में रहने वाले दृश्य एवं अदृश्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा कर डालता है। [४३] इसलिये यह दोष दुर्गति का कारण है ऐसा जानकर साधु पुरुष जीवन पर्यंत के लिये वनस्पतिकाय ३ श्रारंभ का त्याग कर दे। [४४] (वारहवां स्थान) सुलमाधिवंत पुरुप मन, वचन और काय से ब्रल जीवों की हिंसा नहीं करता, हिला कराता नहीं और इन जीवों की हिंसा करनेवाले की प्रशंसा भी नहीं करता। टिप्पणी-त्रसकाय अर्थात् चलने फिरने वाले जीव । इनमें द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक का समावेश होता है। कृमि, चींटी, भौंरा, पशु एवं मनुष्य इत्यादि सभी त जीव कहलाते हैं। [४श क्योंकि बलजीवों की हिंसा करने वाला उन ब्रसकाय जीवों के आधार पर रहते हुए अन्य दृश्य एवं अदृश्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिला कर डालता है। [४६] और यह दोप दुर्गति का कारण है ऐला जावझर लाधु पुरुप जीवन पर्यंत के लिये सज्ञाय के जीवों की हिंसा का त्याग कर दे। टिप्पणी-ऊपर जिन वारह स्थानों का वर्णन किया है वे साधु के 'मूलगुण ' कहलाते हैं। अब आगे ६ उत्तर गुणों का वर्णन करते हैं। 'भूलगुणों को पुष्ट करने वाले गुण को ' उत्तर गुण' कहते हैं।
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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