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________________ धर्मार्थकामाध्ययन ह विदिशाओं तथा ऊपर और नीचे इन दसों दिशाओं में प्रत्येक वस्तु को जलाकर भस्म कर डालती है । [३५] श्रग्नि प्राणिमात्र का नाशक ( शस्त्र ) है - इसमें लेशमात्र की शंका नहीं है, इसलिये संयमी पुरुष प्रकाश किंवा ताप लेने के लिये कभी भी अग्निकाय का प्रारंभ न करे । [३६] क्योंकि यह पाप दुर्गति का कारण है ऐसा जानकर साधु पुरुप अनिकाय के समारंभ को जीवनपर्यन्त के लिये त्याग कर देते हैं । [३७] ( दसवां स्थान ) ज्ञानी साधु पुरुष वायुकाय के प्रारंभ (हिंसा) को भी अनिकाय के प्रारंभ के समान ही पापकारी - दूपित मानते हैं इसलिये पटुकाय जीवों के रक्षक साधु को वायु का घारंभ न करना चाहिये । [३८] इसलिये ताडपत्र के पंखासे, सामान्य वीजना से अथवा वृक्षकी शाखा को हिलाकर संयमी पुरुष अपने ऊपर हवा नहीं करते हैं, दूसरों से अपने ऊपर हवा कराते नहीं हैं और दूसरों को वैसा करते देखकर उसकी अनुमोदना भी नहीं करते हैं । [३६] और संयमी पुरुष अपने पास के वस्त्रों, पात्रों, कंबल, रजोहरण आदि ( संयम के साधनों ) के द्वारा भी वायु की उदीरणा (वायु उत्पन्न होने की क्रिया ) नहीं करते हैं किन्तु उनको उपयोग पूर्वक संयम की रक्षा करने के लिये ही धारण करते हैं। [४०] क्योंकि यह दोप दुर्गति का कारण है पुरुष जीवन पर्यंत के लिये वायुकाय के कर दे । C ऐसा जानकर साधु समारंभ का त्याग
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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