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________________ धर्मार्थकामाध्ययन । [४०] (तेरहवां स्थान) थाहार, शय्या, वस्त्र, तथा पात्र इन चार प्रकारो में से किसी भी प्रकार की वस्तु को, जो साधु पुरुप के लिये प्रकल्प्य (अग्राह्य ) हो उसको भितु कभी भी ग्रहण न करे अर्थात् इनमें से जो कोई भी वस्तु अकल्प्य हो उसे त्याग कर संयमी अपने संयम पालनमें दत्तचित्त रहे। टिप्पणी-श्रीमान् परिभद्रसूरिजीने दो प्रकार के अकल्य माने है। (१) शिला स्थापनाकल्प अर्थात् पिंडनियुक्ति तथा आहारादि की एपणाविधि नाने विना आहार ग्रहण करना और उसमें दोष होने की संभावना होने से उसे अकल्ल्य कहा है; तथा (२) स्थापनाफल्प-इनका वर्णन निमलिखित गाथाओं में दिया गया है। ऐसी वस्तुओं को साधु पुरुष कभी भी ग्रहण न करे। [८] थाहार, शय्या, वत्र एवं पान इन चार वस्तुओं में से संयमी साधु के लिये जो २ वस्तु प्रकल्प्य हों उन्हें ग्रहण करने की साधु कभी भी इच्छा तक न करे किन्तु जो कोई कल्प्य हों उन्हें ही वह ग्रहण करे। [४] जो कोई साधु (१) नियाग (नित्यक ) पिंड (अर्थात् नित्य प्रति एक ही घर से आहार लेना) अधवा 'ममायंति (अर्थात् जो कोई ममत्व भाव से आमंत्रण दे वहीं श्राहार लेना), (२) भितु के लिये ही खरीद कर लाया हुआ थाहार लेना, (३) साधु के निमित्त ही बनाया गया श्राहार ग्रहण करना, (४) दूर २ से श्राकर साधु को याहार दें ऐसे श्राहार को ग्रहण करना-इन प्रकार के दृपित श्राहार पानी को जो साधु ग्रहण करता है वह भिनु (परोत रीति से) जीवहिंसा का अनुमोदन करता है ऐसा भगवान् महावीर ने फरमाया है। टिप्पणी-अपने निमित्त से किसी जीवको हिंसा न हो तथा किसी को दुःख न हो उस प्रकार से आहार प्राप्त कर संयमी जीवन का निर्वाह करना, यदी भिक्षुओं का धर्म है। .
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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