SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - दशवकालिक सूत्र वनाये गये भोजन को इसे दे देगा तो दूसरे याचको को निराश लौटना पडेगा और उनके दुःख का वह स्वयं निमित्त बन जायगा। इसी लिये ऐती तमाम भिक्षाओं को उसके लिये त्याज्य वताया है। [२५] जो अन्नपान साधु के निमित्त ही बनाया गया हो, साधु के लिये ही खरीदकर लाया गया हो, साधु और अपने लिये अलग २ भोजन बनाया गया हो उसमें से साधु निमित्तिक भोजन अपने भोजन के साथ सम्मिश्रित हो गया हो तो ऐसा भोजन अथवा साधु के लिये सामने परोसा हुधा भोजन अथवा साधु के निमित्त घटा बदा कर किया हुआ अथवा उधार मांग कर लाया हुधा तथा मिश्र किया हुश्रा भोजनपान भी साधु ग्रहण न करे। [१६] कदाचित किसी नवीन वस्तु को देखकर भिन्तु को शंका हो कि इस श्राहार की उत्पत्ति किस प्रकार हुई ? किसके लिये यह बनाया गया है ? किसने इसे क्लाया है ? आदि शंकाओं का पूरा २ समाधान कर लेने पर यदि वह शुद्ध भिक्षा हो तो ही संयमी उसे ग्रहण करे (अन्यथा न करे)। [५७+५८] सचित्त पुष्प, वीज अथवा सचित्त वनस्पति से जो भोजन, पान, खाद्य तथा खाद्य आहार मिश्रण (परस्पर मिल गया) हो वह आहारपान संयमी पुरुषों के लिये प्रकल्प्य है इस लिये ऐसे मिश्र भोजन के दाता को साधु कहे कि ऐसी भिक्षा मेरे लिये ग्राह्य नहीं है। [५४+६०] अन्न, जल, खाय तथा स्वाय इन ४ प्रकार के आहारों में से कोई भी श्राहार यदि सचित्त जल पर रक्खा गया हो, चींटी चींटों के बिल, लील या फुग पर रक्खा गया हो तो ऐसा आहारपान संयमी पुरुषों के लिये अकल्प्य है, इस लिये
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy